01 November 2015

टिम टिम रास्तों के अक्स


हर तर्क अंतत: एब्सर्ड ही होता है”... जैसा कि संजय व्यास अपनी किताब में “टिम टिम रास्तों के अक्स” में कहीं किसी पन्ने पर इस बात का ऐलान करते हैं और ये ऐलान कुछ इतनी मासूमियत से किया जाता है लेखक द्वारा कि आपको यक़ीन करना ही पड़ता | सच तो...आख़िर में हर दिया हुआ या दिया जा रहा तर्क कहीं ना कहीं किसी ना किसी दृष्टिकोण से अपने एब्सर्ड होने की ख़ुद ही तासीर देता है |  यही इस किताब की खूबसूरती है कि अपने कथेतर गद्य होने के विशेषण पर भी अपने ऐसे अनगिनत जुमलों में यह किताब हजारों कहानियों का विस्तार समोए हुये है |

“टिम टिम रास्तों के अक्स” को पढ़ना जैसे शब्दों के उजास में नहाना है...जैसे सुबह की स्नान के बाद पालथी मार के बैठ कर स्वच्छ हवा में प्राणायाम करना है | पहली झलक में, किताब में शामिल तमाम तैतीस गद्य के टुकड़े कुछ क़िस्सागोई से करते प्रतीत होते हैं, लेकिन गद्य के इन टुकड़ों से गुज़रते हुये आप महसूस कर रहे होते हैं कि इनमें महज क़िस्सागोई ही नहीं है...एक कविता का वितान भी है, तो कहीं पर किसी गीत का अतीत भी...किसी छूटे हुये उपन्यास की आस है कहीं, तो कहीं किसी डायरी के पन्नों पर गिरी हुई स्याही से अंजाने में उभरी हुई तस्वीर...कहीं पर किसी चितेरे द्वारा छोड़ दिया कोरा कैनवास है तो कहीं उसके ब्रश से छिड़के हुये रंगों का कोलाज और कहीं कहीं पर एकदम स्पष्ट नाक-नक्शे के साथ उकेरा हुआ कोई चेहरा | संजय ख़ुद ही बड़ी साफ़गोई से स्वीकार करते हैं अपने लेखकीय संवाद में भूमिका के तौर पर कि “संग्रह की रचनाएँ एक नज़र में क़िस्से-कहानियाँ लगती हैं | सब नहीं तो इनमें से कुछ तो तयशुदा तौर पर | पर दूसरी नज़र से देखने और ख़ासतौर पर इन्हें पढे जाने पर ऐसा नहीं महसूस होता |” अपनी भूमिका में संजय तनिक बोल्ड होते हुये इन गद्यान्शों को क़िस्से कहने की डींग तक का विशेषण दे जाते हैं और लेखक की इस साफ़गोई पर हौले से मुस्कुराये बिना रह नहीं पाते आप | लेकिन सच तो ये है कि भूमिका में बेशक लेखक ने शुरू के दो पन्ने को औपचारिक रूप से “लेखक की ओर से” जैसा कुछ कह कर पाठक से परोक्ष संवाद स्थापित किया है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि पूरी की पूरी किताब एक तरह से आपसे संवाद करती है |

“टिम टिम रास्तों के अक्स” आपको अपने नाम के भूगोल से वाबस्ता करवाती है, कुछ ऐसी सुबहों से आपको मिलवाती है जो बस सुबहें होती हैं और कुछ नहीं, कुछ ऐसी ट्रिक्स से परिचय करवाती है आपका जिनकी वजह से आश्चर्यों को साधने का विश्वास पाया जा सकता है, मायालोक और यथार्थ के बीच की एक ऐसी यात्रा पर ले चलती है जहाँ अतीत आपके व्यक्तित्व का अंग होता है और वर्तमान आपकी नियती, एक ऐसे लालटेन की रौशनी दिखलाती है जिसके लौ की भभक अपनी ही पैदा की गई चमक को उचक-उचक कर निगलती है | किताब के किसी पन्ने पर अखाड़े में जीत के दर्प से चमकता हुआ योद्धा घर के मोर्चे पर लड़ाई हारता नज़र आता है तो किसी पन्ने पर भौतिकीय नियमों के परखच्चे उड़ाती हुई नर्तकी अपने नाच के वृत में गृहस्थी का आयत जोड़ती दिखती है, रेगिस्तान के विस्तार के साथ-साथ चलती हुई सरकारी बसों की लय सुनाई देती हैं किसी पन्ने पर तो किसी पन्ने पर ठेले पर रखी हुई कमीज़ों की आर्तनाद चीख़ें |  

एक सौ साठ पन्नों वाली हिन्द युग्म से प्रकाशित संजय व्यास की ये किताब पढे जाने की ज़िद करती है और आपकी किताबों की आलमारी में रखे जाने की मांग भी | किताब के कवर पर पुराने जमाने का अब लुप्तप्राय हो चुका बिजली का स्विच एक अपरिभाषित सा मूड तैयार करता है पढे जाने के लिए | हिन्द युग्म की किताबों की बाइन्डिंग और छपाई हमेशा दिलकश होती है और किताब पढ़ने का मज़ा दुगुना कर देती है | किताब ख़रीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक किया जा सकता है :- 


...और अंत में समस्त शुभकानाओं के साथ कि संजय व्यास इसी तरह हमें अपनी लेखनी से चमत्कृत करते रहें !!!

8 comments:

  1. बहुत खूबसूरत है किताब के बारे में ये.शुक्रिया सर जी.और बड़ी ही उदारता से आपने वो ज़िक्र छोड़ दिए हैं जहां जहां लेखक कमज़ोर और लचर रहा है.कोई नहीं.अभी आपके शब्दों से खुमार में रहने का मन कर रहा है.किसी मौके पर वो सब भी बताइयेगा.थैंक्स.इस पते पर आना हमेशा अच्छा लगता है.

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  2. Aisa likha hai aapne ki padhne ki ichha jagrit ho gayi. Sanjay ji ko bahut bahut badhai.

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  3. इस पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा जग गयी … मंगाते हैं

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  4. सुंदर समीक्षा, भावनिक एपिटाइजर की तरह।

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  5. सुंदर समीक्षा, भावनिक एपिटाइजर की तरह।

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. मुझे संजय जी को पढ़ते हुए अजब सा सुकून और शांति का एहसास होता है. ये लिखने वाले की भीतरी सच्चाई से ही आता होगा यक़ीनन. वो लिखते रहें....

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