01 July 2015

एक अक्षराशिक़ का विरहकाव्य

सुनो, चाँदनी के द लिपटे दुख पर अब भी भारी है धूप के प में सिमटा हुआ प्रेम...स्मृतियों में चुंबन के ब से होती बारिश, तुम्हें भी तो भिगोती होगी ना ?




खुलता है यादों का दरीचा
चाँदनी के द से अब भी
बचा हुआ है धूप के प में  प्रेम अभी भी थोड़ा सा
यादों में चुंबन के ब से होती है बारिश रिमझिम
और रगों में ख़ून उबलता तेरे ख़्वाबों के ख़ से

बाद तुम्हारे ओ जानाँ...
हाँ, बाद तुम्हारे भी जब तब

तेरी तस्वीरों के त से र तक एक तराना है
तनहाई का ताल नया है
विरह का राग पुराना है
एक पुरानी चिट्ठी का च बैठा है थामे चाहत
स्मृतियों की संदूकी में
तन्हा-तन्हा अरसे से
एक गीत के गुनगुन ग से हूक ज़रा जब उठती है
कहती है ओ जानाँ तेरा ज बड़ा ही जुल्मी है
एक कशिश के क से निकलती कैसी तो कैसी ये कसक
बुनती है फिर मेरी-तुम्हारी एक कहानी रातों को

बिना तुम्हारे भी जानाँ...
हाँ, बिना तुम्हारे भी अक्सर

यूँ तो मोबाइल का ल अब लिखता नहीं कोई संदेशा
उसके इ में है लेकिन इंतज़ार सा कोई हर पल
मौसम के म पर छाई है हल्की सी कुछ मायूसी
और हवा का ह भी हैरत से अब तकता है हमको

इतना भी मुश्किल नहीं है बिना तुम्हारे जीना यूँ
हाँ, जीने का न बैठ गया है चुपके से बेचैनी में
और धुएँ के बदले उठती सिसकी सिगरेट के स से

ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !

5 comments:

  1. ख़ुद के नुक्ते से रिसती है एक अजब सी ख़ामोशी
    और नज़्म के आधे ज़ सा हुई ज़िंदगी भी आधी
    बाद तुम्हारे ओ जानाँ हाँ, बिना तुम्हारे अब !
    क्या बात है आज इतना विरह ,बेहद नाजुक, दिल के अंदर तक उतर जाने वाली प्रस्तुती

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  2. नए मिज़ाज की नज़्म जिसने आनन्दित कर दिया.

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  3. शब्‍दों के जाल में लि‍पटा प्‍यार....सुंदर लि‍खा है

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