...कि थोड़ी देर और जो चलती रही ये जीप तो इसके रबर के टायर शर्तिया पिघल जाएँगे इन रेतों में ! कितने निष्ठुर हो तुम, लेकिन फिर भी कितने अपने से | ...कि इन खिसकते हुये सैंड-ड्यून्स की सिंफनी दूर उस झेलम की तलहट्टियों में बजते संतूर से कहीं ज़्यादा मधुर धुन सुनाती हैं...
सुनो राजस्थान !
जब भी चाहा मैंने तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ
जब भी चाहा मैंने तुम होना
मैं अंतत: कश्मीर ही हुआ हूँ
तुम्हारे रेत के तपते टीलों पर पिघल कर
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुयीं
मेरे नक्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें
अक्सर ही गड्ड-मड्ड हुयीं
मेरे नक्शे पर खिंची
तमाम अक्षांश और देशांतर रेखायें
हरदम ही तो गुम हुआ है
मेरे कम्पास का उत्तर रुख
मेरे कम्पास का उत्तर रुख
सुस्ताने को दिया नहीं कभी
तुम्हारे नागफनी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे
तुम्हारे नागफनी और खजूर ने
ना ही मेरे भारी जूतों को
संभाला कभी रेतों ने तुम्हारे
मेरों जूतों के तसमों को वैसे भी
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से
सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व
यक़ीन मानो, हारोगे !
रहने दो इस द्वंद्व के एलान को
इश्क़ है बर्फ़ के बुरादों से
सदियों से पसरे तुम्हारे रेत
दो दिन की ताज़ा गिरी बर्फ़ से भी
नहीं कर सकते हैं द्वंद्व
यक़ीन मानो, हारोगे !
रहने दो इस द्वंद्व के एलान को
मानता हूँ कि
बर्फ़ के बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुलमिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी
बर्फ़ के बुरादे नहीं मानते अपना
मेरे हरे रंग को
जबकि घुलमिल जाती है
तुम्हारे पीलौंछ में मेरी हरी वर्दी
सुनो, तुम तो मेरे ही हो
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
की थी अपनी पहली शिनाख़्त
तब से कि
जब से मेरे कंधों पर बैठे सितारों ने
की थी अपनी पहली शिनाख़्त
बनाना है उसे भी अपना
तुम्हारी तरह ही
तुम्हारी तरह ही
उसे गुमान है अपने हुस्न पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुब्ह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर
है नाज़ अपने जमाल पर
खिलती है सुब्ह की पहली मुस्कान
उसके ही चिनारों पर
है थोड़ा सा खफ़ा बेशक़
जीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम
ऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
जीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार
जानते तो हो तुम
ऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
जीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार
आऊँगा इक रोज़ वापस
ख़ुद को भुलाने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिये बस
तुम्हारा सकून भरा
गर्म आगोश
ख़ुद को भुलाने
तुम्हारे रेतों के बवंडर में
कि बर्फ़ की सिहरन से जमी हड्डियों को
अब चाहिये बस
तुम्हारा सकून भरा
गर्म आगोश
लगाओगे ना गले
आऊँगा जब भी वापस ?
आऊँगा जब भी वापस ?
निः शब्द कर दिया। खुले दिल और खुली बाँहों से होगा स्वागत
ReplyDelete:) थैंक यू रचना मैम !
Deleteअद्भुत जरनल साहेब ..अद्भुत ...काश्मीर से लेकर राजस्थान तक और बर्फ से लेकर रेत तक जितनी रवानी से पिघला गए आप ....ये हुनर आसां नहीं हैं ...बहुत ही उम्दा ....एक करारा सैल्यूट पेशे खिदमत है :) :) :) :)
ReplyDeleteबहुते बहुते शुक्रिया झाजी यौ
Deleteजीत कर लौटो कर्नल!
ReplyDeleteयह ज़ज़्बा यह जोश!
वाह!
:) :)
Deleteवाह. क्या बात है. ग़ज़ब.
ReplyDeleteशुक्रिया ओ गजब चितेरे !
Deleteओह!
ReplyDeleteऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
ReplyDeleteजीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार
है थोड़ा सा खफ़ा बेशक़
ReplyDeleteजीतेगा मेरा इश्क़ ही आख़िरश
जानते तो हो तुम
ऊँट का मुँह है इश्क़ मेरा
जीरा तुम्हारा रेतीला विस्तार
वाह !
थैंक यू, मैम !
Deletebahut sunder abhivyakti
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