{मेरा ये आलेख कनाडा से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका "हिन्दी चेतना" के अक्टूबर-दिसंबर 2013 अंक में शामिल हुआ था}
इंग्लैंड के विख्यात गेंदबाज फ्रेड ट्रूमैन जब विश्व क्रिकेट
इतिहास में तीन सौ विकेट का आँकड़ा छूने वाले पहले क्रिकेटर बने, तो उनका दंभ भरा वक्तव्य था
"मेरे बाद शायद कोई और भी गेंदबाज आयेगा तीन
सौ विकेट लेने वाला, लेकिन इतना तो तय है कि उस साले के घुटने थक कर टूट जायेंगे |" ट्रूमैन के इसी दम्भोक्ति के पार्श्व
में कहीं से एक इच्छा पनपती है
कि काश वो एच॰जी॰ वेल्स वाली टाइम मशीन होती और मैं जा कर बैठ पाता चुपके से सदियों पहले हुई उस हिन्दी कहानी
की परिचर्चा में जब कहानिकारों की एक तीन सदस्य वाली टीम ने बड़े सलीके और बड़ी ही चतुराई
के साथ अपने से पहले की पीढ़ी और अपने समकालीनों को धता बताते हुये किसी कथित नई कहानी
आंदोलन का आगाज़ किया था | उन्हें भी कहाँ पता था श्री फ्रेड ट्रूमैन की तरह कि आने वाली
सदी में जाने कितने ऐसे गेंदबाज़ आयेंगे जिनके समक्ष तीन सौ का आँकड़ा ठिठोली सा प्रतीत
होगा...कि आनेवाली नई सदी में कहानिकारों
की ऐसी टीम उभर कर आयेगी जो हिन्दी कहानी को एक अलग ही बुलंदी पर ले जायेगी, जहाँ से वो कथित आंदोलन महज
एक लतीफ़ा बन कर रह जायेगा |
नई सदी के इन तेरह सालों ने सचमुच ही चमत्कृत कर देने वाले कहानीकारों को हम
जैसे हिन्दी के पाठकों से रूबरू करवाया है | बात कथ्य की हो कि शिल्प की
हो कि भाषा सौंदर्य की हो...इस नई सदी की करिश्माई किस्सागोई का
सम्मोहन हिन्दी साहित्य के पर्दे पर देर तक अपना जादू बिखेरते रहने वाला है |
...तो अगर इस नई सदी के इन तेरह सालों में उभर कर आए इन अजूबे हिन्दी कहानीकारों
में से तेरह किस्सागोओं की एक टीम बनानी हो तो कौन-कौन से नाम शामिल होंगे इस में ?
दुश्वारी सी कोई दुश्वारी थी ये, जब इस आलेख के लेखक को यह कार्य सौपा गया इस हिदायत
के साथ कि उसकी अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद इस टीम के चुनाव में कोई सियासत ना करे | एक ही रास्ता शेष बचता था
ऐसे में और वो था वोटिंग का | तकरीबन चालीस से ऊपर कथाकारों के नाम की फ़ेहरिश्त
बनाई गई जिनकी कहानियाँ इस सदी के दौरान पाठकों के समक्ष आयीं और फिर इन तेरह सालों में वो अपने पाठकों को और-और सम्मोहित करते चले गये | साथ में इस बात को भी ध्यान
में रखा गया कि कम-से-कम एक किताब इन किस्सागोओं की आ चुकी हो हम पाठकों के हाथ में
| आलेख के लेखक ने अपने इक्यावन पाठक-मित्रों को, जिनकी रुचि हिन्दी-साहित्य में है और खास तौर पर जिन्होंने इन कथाकारों
का लिखा हुआ पढ़ा है, को ये फ़ेहरिश्त मेल, व्हाट्स एप और एसएमएस द्वारा भेजा और उन्हें फ़ेहरिश्त में शामिल कथाकारों के नाम के आगे अपनी पसंद के अनुसार
अंक देने को कहा गया- सर्वाधिक पसंदीदा को एक अंक और उसी क्रम में बढ़ते हुये- शर्त ये भी थी कि एक अंक-विशेष देने के बाद दुबारा वो अंक
किसी अन्य कथाकार को ना दिया जाये | इक्यावन में से कुल चौबालीस जवाब आये और वो भी जाने कितनी बार फरियाद करने के बाद | कुछ मित्रों
से फोन पर लंबी बहसें भी हुयी इसी सिलसिले में | हर कथाकार को मिले अंको को
लेखक द्वारा जोड़ा गया और फिर सबसे कम अंक पाये तेरह कथाकारों की फ़ेहरिश्त बनायी गई
| आइये देखते हैं इस सदी के
इन तेरह सालों में सर्वाधिक पसंद किए जाने वाले तेरह किस्सागोओं की टीम को | फ़ेहरिश्त वर्णमाला के क्रमानुसार
है, न कि प्राप्त
अंकानुसार :-
- अल्पना मिश्र
अल्पना मिश्र
की पहली कहानी “ऐ अहिल्या” थी, जो हंस के अक्टूबर, 1996 अंक
में
प्रकाशित हुयी थी | तब से लेकर अपनी हर कहानियों के साथ अल्पना की लेखनी अपने
पाठकों के साथ एकाकार होती गई | 2006 में अपनी पहली किताब “भीतर का वक़्त” से एकदम से चर्चा
में आयीं अल्पना ने फिर अपने इस रुतबे को घटने ना दिया और अपने दूसरे संकलन “छावनी
में बेघर” और अभी साल भर पहले राजकमल से प्रकाशित “क़ब्र भी क़ैद औ’ ज़ंजीरें भी”
के मार्फत अपने पाठकों से लगातार सीधा संवाद करती रही हैं | चित्रा मुद्गल
के अनुसार “गहन भीतरी संवेदना की आँच में सीझी हुई अल्पना की कहानियाँ अपने सरोकारों
में सघन व्यापकता समेटे हैं, जो राजनीतिक,
आर्थिक, नैतिक-अनैतिक मूल्यों को उनके बहुपक्षीय बिन्दुओं की विरूपताओं
और विडम्बनाओं से उपजी द्वंद्वात्मकता के तनाव में जिस दक्षता से महीन बुनावट में सिरजती
हैं- चकित करती हैं |” ...और अल्पना
सचमुच चकित करती हैं कि तकरीबन छ साल पहले की लिखी उनकी कहानी “मिड डे मील” को आज सच
होते देखते हैं हम...लेखिका द्वारा वर्षों पहले भाँपे गये या भाँप लिये गये किसी कड़वे
हक़ीक़त को कहानी में गूँथ देने की इसी अनूठी कला ने उनके पाठकों चमत्कृत कर रखा है | अपनी चर्चित
कहानी “बेदख़ल” में लेखिका कहती भी हैं कि “वे सच, जो सच के
भीतर छिपे रहते हैं, दिखते नहीं,
जिन्हें बेदख़ल मान लिया जाता है, वे सच, अपनी अनुपस्थिति
में भी उपस्थित होते हैं” | ऐसे ही सच से अपने पाठकों को मिलवाना तो एक किस्सागो की ज़िम्मेदारी
है |
इन दस-एक वर्षों
में कुछ अविस्मरणीय कहानियाँ भेंट दी हैं अल्पना मिश्र ने हम पाठकों को...भीतर का वक़्त, मुक्ति-प्रसंग, छावनी में
बेघर, सड़क मुस्तकिल,
ऐ अहिल्या,
लिस्ट से गायब आदि | जल्द ही उनका
एक बहुप्रतीक्षित उपन्यास “अनिहारी पल छिन में चमका” आधार प्रकाशन से आने वाला है |
अपनी अब तक
की लिखी समस्त कहानियों में अल्पना “उपस्थिती” को सर्वाधिक पसंदीदा के रूप में चुनती
हैं और अपने समकालीनों की लिखी कहानियों में नीलाक्षी सिंह की “एक था बुझवन” और विमल
चंद्र पाण्डेय की अभी-अभी लमही में आई कहानी “काली कविता के कारनामे” का ज़िक्र करती
हैं |
- कविता
अपनी पहली कहानी “सुख” (हंस, फरवरी
2002) से हिन्दी साहित्य में प्रवेश करने वाली कविता का एक अलग ही क्रेज है उनके पाठकों
के बीच...जैसा कि राजेन्द्र यादव कहते हैं “कविता की कहानियों को पढ़ना ‘नई लड़की’ को जानना
है” | अपनी पहली कहानी के बाद तकरीबन इन ग्यारह सालों में खूब सारी
किताबें दी हैं कविता ने अपने पाठकों को- भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित दो कहानी-संकलनों
“मेरी नाप के कपड़े” और “उलटबाँसी” के अलावा सामयिक प्रकाशन से एक कहानी-संग्रह “नदी
जो अब भी बहती है” और एक उपन्यास “मेरा पता कोई और है” |
कविता की कहानियों में...अधिकांश कहानियों में स्त्री का मौजूदा परिवेश
के प्रति एक
अपरिभाषित-सा सहमापन है |
नहीं, ये कहीं से किसी विमर्श की तलाश करता हुआ सहमापन नहीं है...बल्कि
एक फैला हुआ परिस्थितिजन्य सत्य है, इस दौर की क्रूर मानसिकता को उधेड़ने भर का प्रयास है और जिसे
पाठकों ने कविता की कहानियों के मार्फत देखा, भाला और सराहा
है | बेशक तमाम आलोचक, समीक्षक उनकी
कहानियों पर लिखते हुये स्त्री-विमर्श आदि का ठप्पा लगाते रहे...एक पाठक जब इन कहानियों
से गुज़रता है तो उन्हें इन कथित ठप्पों से परे रखता और यही कविता की लेखनी का प्लस
प्वाइंट बनता है | कविता की अधिकांश कहानियों में मौजूद सूत्रधार...वो “मैं”
की जुबानी बुनता किस्से सुनाता सूत्रधार,
जहाँ लेखिका को किस्सा कहना आसान करता है, वहीं उसे
एक अलग-सी मुश्किल भी देता है कि कहीं बार-बार वो खुद को दोहरा तो नहीं रहा | वो मुश्किलपन
चाहे “जिरह : एक प्रेमकथा” के अद्भुत शिल्प से आसान होता हो या फिर “देहदंश” के स्वालाप
से |
अपने समकालीनों कथाकारों में से एक की अपने पसंद की कहानी चुनने के
लिये कहे जाने पर कविता, नीलाक्षी सिंह की “एक था बुझवन” और मनोज कुमार पाण्डेय की
“पानी” का ज़िक्र करती हैं | अपनी खुद की लिखी पसंदीदा कहानियों में “देहदंश”, “उलटबाँसी”, “पत्थर माटी
दूब” और “लौट आना ली” का नाम लेती हैं |
जल्द ही उनका एक और उपन्यास “चेहरे” शीर्षक से आधार प्रकाशन
से आ रहा है |
- कुणाल सिंह
किसी किस्सागो की किस्सागोई का तिलिस्म अगर अपने
पाठकों पर वो “सर चढ़ कर बोलने” वाली कहावत को चरितार्थ करता है...तो वो कुणाल की किस्सागोई
है | अक्टूबर, 2004 में
निकले वागर्थ के नवलेखन अंक ने किस्सागोओं की जिस नई पौध का अंकुरण किया, कुणाल उनमें
सबसे ज़्यादा लहलहाते नजर आए | अपने दो कहानी संकलनों “सनातन बाबू का दाम्पत्य” और “रोमियो
जूलियट और अँधेरा” तथा एक उपन्यास “आदिग्राम उपाख्यान” से भाषा-सौंदर्य और शिल्प को
नया आयाम देते हुये, जहाँ कुणाल इस पीढ़ी के सबसे चर्चित कथाकारों में शुमार होते
हैं, वहीं अपने नाम के साथ विवादों का अंबार भी खड़े किये हुये
हैं | ज्ञानपीठ संस्था में अपनी पैठ से की जा रही मनमानी का मामला
हो या फिर अपने उपन्यास “आदिग्राम उपाख्यान” को संयुक्त रूप से मिले वर्ष 2011 का नवलेखन
पुरस्कार लेने पर उठी ऊंगालियों का प्रश्न हो- कुणाल अपनी कहानियों की तरह अपने नाम
को भी ज़िक्रे-सुख़न में रखने का मोह छोड़ नहीं पाते |
लेकिन तमाम विवादों के बावजूद, उनकी कहानियों
को नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है | “साइकिल”, “प्रेमकथा में मोजे की भूमिका”, “रोमियो जूलियट
और अँधेरा”, “सनातन बाबू का दाम्पत्य”, “डूब”, “झूठ”...और
ऐसी तमाम कहानियों के अद्भुत शिल्प और कथ्य के लिये कुणाल लंबे समय तक याद रखे जाएंगे
| अभी अभी उनका तीसरा कहानी संकलन “इतवार नहीं” एकबार फिर ज्ञानपीठ
प्रकाशन से साया हुआ है |
- गीत चतुर्वेदी
लंबी कहानियों के बादशाह गीत चतुर्वेदी अपने अनूठे
अंदाज़ और अनोखे शिल्प की वजह से इस पीढ़ी में सबसे अलग-थलग खड़े दिखते हैं | कुल जमा छ
कहानियों से ही हिन्दी कथा-साहित्य के सफ़े पर अपना अमिट दस्तख़त छोड़ते हुये गीत, तमाम शोर-शराबे
से दूर, चुपचाप खड़े अपनी
किस्सागोई का जादू अपने पाठकों पर फैलते
देखते हैं और हौले से मुस्कुराते हैं |
पहली कहानी “सावंत आंटी की लड़कियाँ”(पहल, अगस्त
2006) के पात्र, कहानी का परिवेश, अश्लीलता
के टैग से बस तनिक सा खुद को बचाता हुआ कहानी का मंत्रमुग्ध करता भाषा-सौंदर्य...इन
सबने अलग-अलग और इकट्ठे मिल कर गीत को एक झटके में स्थापित किस्सागो का रुतबा दे दिया
| जैसा कि ज्ञानरंजन इस कहानी को लेकर कहते हैं “ये गीत की
ऐसी रचना है, जिसके पात्र कठोर क्षेत्रों में प्रवेश करते हुये लगभग बेक़ाबू
हैं...उनका जोखिम जबरदस्त है, शास्त्रीयता का मुखौटा तोड़ने वाला | बावजूद इसके
यह कहानी फ़तह नहीं, त्रासदी है” |
गीत की सारी कहानियों का फ़लक किसी उपन्यास से कम नहीं है | एकदम अलग-सी
शैली में सुनाई गई ये कहानियाँ, जिनके पात्र एक कहानी से निकल कर दूसरी कहानियों में विचरते
नजर आते हैं...ठेठ गालियाँ निकालते सुनाई देते हैं...हम पाठकों को अपने
आस-पास के ही दिखते हैं, नेक्स्ट-डोर नेबर जैसे और बगैर किसी भूमिका या परिचय के हम
पाठक गीत के पात्रों से जुड़ते चले जाते हैं | एक किस्सागो
के लिए इस से बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है भला ?
तीन-तीन कहानियों वाली उनकी दो किताबें “सावंत आंटी की लड़कियाँ” और
“पिंक स्लिप डैडी” (जिसे गीत “पीएसडी” पुकारना पसंद करते हैं) राजकमल प्रकाशन से
2010 में आ चुकी हैं | जल्द ही उनका एक उपन्यास “रानीखेत एक्सप्रेस” भी आने वाला
है |
- चंदन पाण्डेय
...एंड व्हेन ऑल अबाउट नरेटिंग ए स्टोरी वाज लुकिंग
ग्लूमी...रियल ग्लूमी, देयर केम चंदन पाण्डेय ! 2007 के ज्ञानपीठ नवलेखन अवार्ड
के विनर चंदन अपनी स्टोरीज में वेरायटी ऑव एक्सपेरिमेंट करने के अलावा, ही टेक्स
ऑल वी रीडर्स ऑन ए डिफरेंट जर्नी...हर बार, बार-बार |
फ्रॉम हिज
वेरी फ़र्स्ट स्टोरी “परिंदगी है कि नाकामयाब है...”, जो वागर्थ
के 2004 अक्टूबर इसू में पब्लिश हुई थी,
चंदन हैज नॉट स्टॉप्ड मेसमेराइजिंग हिज रीडर्स | अपनी फ़र्स्ट
स्टोरी में ही फियर और हेल्पलेसनेस का कुछ ऐसा कॉम्बिनेशन बांधा उन्होंने प्रोटेगोनिस्ट
गीता के करेक्टराइजेशन के जरिये कि इट वाज लाइक एन इंस्टेंट मैजिक...ए मैजिक दैट सरपास्ड
ऑल हिज कंटेम्पररिज | अभी कुछ दिनों पहले, आई आस्क्ड
हिम कि व्हाय दिस टाइटल “परिंदगी है कि...” एंड व्हाय नॉट “कक्का हौ”, तो खुल के
हँसे थे वो और फिर ये शेर सुनाया “गो आस्माँ कफ़स से बहुत खुशज़हाब है / लेकिन परिंदगी
है कि नाकामयाब है” |
ओके, एनफ़ ऑव हिंगलिश...दरअसल ये आफ्टर इफेक्ट था चंदन की एक प्रयोगात्मक
कहानी “सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी” पढ़ने के बाद का...अहा, क्या किस्सागोई
है | अपने पहले कहानी-संकलन “भूलना”, जो भारतीय
ज्ञानपीठ से तकरीबन पाँच साल पहले आ चुकी है, के बाद से
चंदन ने हम पाठकों को दो कहानी की किताबें और दी हैं – पेंगुइन प्रकाशन से “इश्क़फ़रेब”
और अभी इसी साल ज्ञानपीठ से “जंक्शन” |
चंद अविस्मरणीय कहानियों का जिक्र अगर करना हो, जिनकी वजह
से चंदन अरसे तक याद रखे जायेंगे, तो उनमें “भूलना” , “रेखाचित्र
में धोखे की भूमिका”, “ज़मीन अपनी तो थी”, “कवि” और
“परिंदगी है कि...” शामिल होंगी | “रेखाचित्र में धोखे की भूमिका” चंदन के कई समकालीन लेखकों
/ लेखिकाओं की भी पहली पसंद है | अभी-अभी पहल के 91वें अंक में आई उनकी कहानी “लक्ष्य शतक
का नारा”, अपने अलग ही ट्रीटमेंट और दुर्लभ शिल्प की वजह से खूब चर्चे
में है |
अपनी लिखी तमाम कहानियों में अपनी सर्वाधिक पसंदीदा कहानी चुनने के
आग्रह पर चंदन अपने ही खास अंदाज़ में कहते हैं “किसी को भी नहीं, क्योंकि एक
भी पत्ता अतिरिक्त नहीं” और समकालीन
कहानियों में राजशेखर की “फिर वह कौन सा तूफान था पम्मी” को चुनते हैं |
- जयश्री राय
सामने फैला अथाह समन्दर, ऊपर टंगा
नीला चाँद, क्वार का महीना, अनझिप आँखें, कोई रूहानी
इश्क़ का नग्मा, टकीला के शॉट्स, टिटहरी की
तरह कोई उदास निसंग शाम, पुटूस के फूल,
वर्जित-सी छुअन एक, रिश्तों की
उधड़ी सिलाई को बुनती कोई एकाकी नायिका...जयश्री की किस्सागोई ! किस्सागोई या लहराती-सी
नज़्म का धीमा आलाप ? संजीव कहते हैं “जयश्री की कहानियों में जो चीज पहली ही नजर
में प्रभावित करती है, वो है उनकी रंगों-सुगंधों के झरने-सी
झरती, इंद्रधनुषी
वितान तानती भाषा” | हंस के मार्च 2010 अंक में ‘मुबारक पहला
कदम’ के जरिये अपनी पहली ही कहानी “पिंड-दान” से सबका ध्यान आकृष्ट
करने वाली ये लेखिका इन तीन सालों के दौरान हिन्दी कथा-साहित्य में अपनी एक विशिष्ट
पहचान बना चुकी हैं | हम पाठकों की किताब वाली आलमारी में तीन कहानी-संकलनों “खारा
पानी”, “अनकही”(दोनों शिल्पायन से) और “तुम्हें छू लूँ जरा”(सामयिक)
और दो उपन्यास “औरत जो नदी है”(शिल्पायन) और “साथ चलते हुये”(सामयिक) डाल कर जयश्री ने अपना एक खास फैन-फौलोइंग बना रखा है |
उनकी लेखनी के पास बिंबो का भंडार है और उन बिंबों को एक खास तरह
से उकेरने का अंदाज़ भी | उनकी नायिकायें अपनी उदासियों में भी एक अलग ही रूहानी किस्म
का आनंद देती हैं अपने पाठकों को...दुख का भी जैसे उत्सव-सा मनाया
जा रहा हो कहानियों से गुज़रते हुये...चाहे वो “गुलमोहर” की अपराजिता हो या “माँ” की
रामेश्वरी देवी या फिर “तेरहवां चाँद” की अंतरा | जयश्री के
नायक भी उनकी नायिकाओं से अलग कहाँ ठहरे...”पिंडदान” के जोधन बाबू की ट्रेजेडी, “निषिद्ध”
के ‘मैं’ का डिलेमा या “सूअर का छौना” के दुखी का स्ट्रगल...सब जैसे
अपने अलग-अलग अवतार में अपनी उदासी को सेलेब्रेट कर रहे होते हैं |
अपने समकालीनों में किसी एक कहानी का चुनाव करने के लिए कहे जाने
पर जयश्री, मनोज कुमार पाण्डेय के अभी हाल ही में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित
कहानी “पानी” को चुनती हैं और अपनी लिखी कहानियों में “सूअर का छौना” को |
- नीलाक्षी सिंह
यूँ इस आलेख में सन दो हजार दशक के शुरुआत से लिखने
वाले कथाकारों की पीढ़ी को ही शामिल करने की ही बात थी और नीलाक्षी की पहली कहानी “फूल”
वागर्थ के मई, 1998 अंक में प्रकाशित हुई थी...लेकिन उस एक कहानी के बाद
से लेखिका की अन्य तमाम कहानियाँ सन दो
हजार से मंजरे-आम होना शुरू हुयीं | जहाँ तक मेरी
अपनी याददाश्त की क्षमता है, तो इंडिया टुडे की 2002 वाले साहित्यिक वार्षिक अंक में आई
उनकी कहानी “उस शहर में चार लोग रहते थे” से नीलाक्षी ने सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट
किया था | ये कहानी मेरे लिए कुछ विशेष इसलिए भी थी कि कहानी की नायिका
की तरह ही मेरे बैचमेट की मंगेतर ने,
कारगिल युद्ध में मेरे बैचमेट की शहादत के बाद, कभी शादी
ना करने का फैसला किया था | इन दस-एक वर्षों
में नीलाक्षी की जाने कितनी कहानियों ने हम पाठकों को कैसे तो कैसे झकझोरा, रुलाया और
हँसाया है | उनकी कुछ कहानियों के शीर्षक में ही ऐसा खिंचाव है कि शीर्षक
पढ़ते ही पूरी कहानी तुरत से पढ़ने को जी चाहे | अब चाहे वो
“टेकबे त टेक न त गो”(जो अब “प्रतियोगी” शीर्षक से उनकी किताब में संकलित है) हो या
फिर “माना, मान जाओ ना” हो या फिर “रंगमहल में नाची राधा” हो...जितना
दिलचस्प शीर्षक, उतनी ही दिलचस्प कहानियाँ |
नीलाक्षी के अब तक दो कहानी-संकलन “परिंदे का इंतजार-सा कुछ” और
“जिनकी मुट्ठियों में सुराख़ था” और एक उपन्यास “शुद्धिपत्र” हम पाठकों के हाथ में आ
चुके हैं | तीनों किताबें भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं |
जब नीलाक्षी से उनकी अपनी लिखी समस्त कहानियों में उनकी पसंद की कहानी
का नाम लेने को कहा तो, उन्होंने बगैर कोई वक़्त लिए “प्रतियोगी” का ज़िक्र किया, जो उनकी पहली
किताब “परिंदे का इंतजार सा कुछ” में पहली कहानी के तौर पर शामिल है | अपने समकालीनों
द्वारा लिखी कहानियों में वो कुणाल की “सनातन बाबू का दाम्पत्य” को सर्वाधिक पसंद करती
हैं |
- पंकज मित्र
पंकज मित्र की भी पहली कहानी इस दशक की शुरुआत से
पहले ही आ चुकी थी | उनकी पहली कहानी “एपेन्डिसाइटिस” हंस के सितंबर 1996 अंक
में प्रकाशित हुयी थी और उनकी ख़ासी चर्चित कहानी “पड़ताल”, जिसे इंडिया
टुडे की 1997 वाली वार्षिकी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था, और जो बाद
में हंस में भी प्रकाशित हुयी थी | किन्तु महज इन दो
कहानियों की बदौलत पंकज मित्र को इस पीढ़ी
के किस्सागोओं में शामिल ना करना पाप-सा होगा और विशेष कर तब, जब मित्रों
की वोटिंग में वो सबसे अव्वल कथाकारों में से एक हैं |
“पड़ताल” कहानी की चर्चा छेड़ने पर और यूँ ही कहने पर कि ये कहानी पहले
इंडिया टुडे और फिर बाद में हंस में भी प्रकाशित हुयी थी, पंकज मित्र
तनिक सकुचा से गए थे | उनकी ये विनम्रता दिल को छू गई, जिस तरह से
वो सफाई देने लगे | ये सकुचाहट एक बड़े कथाकार के एक बहुत बड़े एथिकल वैल्यू को
दिखाता है और हम जैसे उनके प्रशंसकों को उनका और-और कायल बनाता है |
एक विशिष्ट-सी ठेठ शैली में कथा सुनाते पंकज मित्र अपने पाठकों को
गुदगुदाते हुये किस्सागोई के चरमोत्कर्ष पर ले जाते हैं | “क्विज़मास्टर”, “बे ला का
भू”, “निकम्मों का कोरस”, “हुड़ुकलुल्लु”, “हरी पुत्तर
और गजब खोपड़ी” और ज्ञानोदय में छपी “पप्पू कांट लव साला” जैसी कहानियाँ हम पाठकों के
मन-मस्तिष्क पर अरसे तक जिंदा रहेंगी |
उनकी अब तक दो कहानी की किताबें आ चुकी हैं – “क्वीज़मास्टर”
और “हुड़ुकलुल्लु” | तीसरा कहानी संकलन “ज़िद्दी रेडियो” भी जल्द ही राजकमल प्रकाशन
से आने वाला है |
अपनी लिखी पसंदीदा कहानियों में वो “बे ला का भू” और “क्वीज़मास्टर”
का नाम लेते हैं और समकालीनों की कहानियों में कुणाल सिंह के “सनातन बाबू का दाम्पत्य”
और विमल चंद पाण्डेय के “डर” का ज़िक्र करते हैं |
- पंकज सुबीर
एक प्रसिद्ध पत्रिका के हाल के अंक में अपने एक
वक्तव्य में राजेन्द्र यादव जिन कहानिकारों की कहानियाँ लंबे समय तक जिंदा रहेंगी के
बारे में जब चर्चा करते हैं तो उसमें पंकज सुबीर का नाम लेते हैं | 2011 में
अपने पहले उपन्यास “ये वो सहर तो नहीं” के लिए कुणाल के साथ संयुक्त रूप से ज्ञानपीठ
का नवलेखन पुरस्कार जीतने के पहले से,
बहुत पहले से अपनी
कहानियों में अलग-सी शैली और शुद्ध कथारस
का आस्वादन कराते हुये पंकज सुबीर हम पाठकों को लुभाते आ रहे हैं |
अपने समकालीन किस्सागोओं में पंकज सुबीर को जो एक अलग-सा, एक हटकर-के
वाला इमेज मिलता है, वो उनकी कलम से निकले अनूठे “विट” की वजह से...चुटकियाँ लेते, अपने पाठकों
को गुदगुदाते उनके खासम-खास “वन लाइनर”,
जो यत्र-तत्र बिखरे पड़े मिलते हैं उनकी कहानियों में | अपनी पहली
कहानी “और कहानी मरती रही”, जो हंस के जुलाई 2004 अंक में छपी थी और जिस पर लेखक को प्रेमचंद
स्मृति सम्मान भी मिला था और उसके तत्काल बाद दूसरी कहानी “एनसरिंग मशीन”, जो वागर्थ
के अक्टूबर, 2004 वाले अंक में शामिल हुयी थी, के बाद से
पंकज सुबीर ने हम पाठकों को अपने एक उपन्यास के अलावा दो कहानी की किताबें-ज्ञानपीठ
से नवलेखन के लिए अनुशंसित “ईस्ट इंडिया कंपनी” और सामयिक से आयी “महुआ घटवारिन” दे
चुके हैं | “महुआ घटवारिन” को इस साल कथा यूके सम्मान के लिए भी चुना
गया है |
अपनी लिखी तमाम कहानियों में किसी एक का चुनाव करने के लिए कहे जाने
पर पंकज सुबीर “अंधेरे का गणित” और “ईस्ट इंडिया कंपनी” का नाम लेते हैं | “अँधेरे का
गणित” का कथ्य जहाँ हर तरफ से अश्लील हो जाने की संभावना लिए खड़ा था, वहीं ये पंकज
सुबीर की लेखनी का ही चमत्कार कहा जायेगा कि महज बिंबों के जरिये उन्होंने सारे दृश्यों
को निभाया और उस से भी बड़ी बात कि एक स्थापित होते हुये लेखक द्वारा इतने बोल्ड सबजेक्ट
को उठाना एक बहुत बड़ा रिस्क था | अपने समकालीनों की कहानियों में सर्वाधिक पसंद आयी कहानियों
में वो मनीषा कुलश्रेष्ठ की “कठपुतलियाँ” और “स्वाँग” का, कुणाल की
“सायकिल” का और चंदन पाण्डेय की “परिंदगी है कि नाकामयाब है” का ज़िक्र करते हैं...ना
सिर्फ ज़िक्र करते हैं, बल्कि इन चारों कहानियों पर खूब विस्तार से चर्चा करते हैं
|
- प्रत्यक्षा
कोई चितेरा{इस नाम के
संदर्भ में चितेरी} जब ब्रश छोड़ कर कलम उठा ले और किस्से बुनने लगे तो पन्ने
पर जो शब्दों के जरिये एक तस्वीर-सी उभर कर आती है, वो प्रत्यक्षा
की कहानियाँ हैं | उजले सफ़ेद पन्नों के कैनवास पर अक्षरों की कूची से शब्दों
के एक-से-एक चटकीले रंग देते हुये प्रत्यक्षा जब कहानी सुनाती हैं, तो हम जैसे
उनके जाने कितने ही बेरंगे पाठक रंग-रँगीले हो उठते हैं | प्रत्यक्षा
की पहली कहानी “सीढ़ियों के पास वाला कमरा” वागर्थ के अक्टूबर
2006 वाले अंक में आई
थी...और तब से अपनी दो कहानी की किताबों- “जंगल का जादू तिल-तिल”{भारतीय ज्ञानपीठ} और “पहर दोपहर
ठुमरी”{हार्पर कॉलिन्स} के साथ लगभग
हुकूमत करती हैं हम पाठकों के मन-मस्तिष्क पर | “जंगल का
जादू तिल-तिल” में शामिल छोटी-छोटी कुल तेईस कहानियों से गुज़रना जैसे...जैसे किसी पेंटर
के स्टूडियो में उसकी चित्र-प्रदर्शनी में
खड़े होना और थमक-थमक कर एक पेंटिंग से दूसरे पेंटिंग तक टहलना है...”दिलनवाज़, तुम बहुत
अच्छी हो” की नायिका से तो इश्क़ ही हो जाता है मुझ जैसे पाठक को | “पहर दोपहर
ठुमरी” में शामिल कुछ कहानियाँ जैसे “कूचाए नीमकश” या फिर “केंचुल” या...या फिर “ललमुनिया,हरमुनिया”...की
स्केचिंग में देर शाम को दूर से आती ठुमरी के ठहरे हुये आलाप का लुत्फ मिलता है | “कूचा-ए-नीमकश”
का वो कहवाघर भी बाकी पात्रों के साथ इस तरह सजीव होकर उठता है कि पढ़ते हुये मन करे
आपको उसका पता जानने का और वहाँ जाकर कॉफी पीने का |
कभी पूछा था बहुत पहले प्रत्यक्षा से उस कहवाघर के बारे में कि कहाँ
का है वो | जवाब में लेखिका ने इतनी सादगी से बताया कि वो तो मन के किसी
कोने में कल्पना की ज़मीन पर बसा है...इतनी सादगी भरा जवाब था वो कि उफ़्फ़ ! अपनी लिखी
कहानियों में प्रत्यक्षा “जंगल का जादू तिल तिल” और “कूचा-ए-नीमकश” का नाम लेती हैं
और समकालीनों की कहानियों में वंदना राग की “स्वांग” और गीत चतुर्वेदी की “सिमसिम” का ज़िक्र करती हैं |
- प्रभात रंजन
राष्ट्रीय सहारा द्वारा 2004 की शुरुआत में आयोजित
कहानी-प्रतियोगिता में अपनी अद्भुत कहानी “जानकी पुल” से प्रथम पुरस्कार जीतने वाले
प्रभात रंजन इस टीम के सशक्त गेंदबाजों में से हैं | अपनी पहली
कहानी “मोनोक्रोम”, जो वर्ष 1999 में जनसत्ता में आई थी के बाद से लगातार प्रभात
अपनी कहानियों से हम तमाम पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचे रहे हैं...चाहे वो “फ्लैश
बैक” के बाँके बिहारी का अजब-गज़ब चरित्र चित्रण हो या फिर “डिप्टी साहेब”
के चंद्रमणि
अक्का सी॰एम॰ का गुदगुदाता हुआ रेखाचित्र हो या फिर “मिस लिली” की लिली
ठाकुर का छोटे शहर में बड़े सपने देखने की गुस्ताखी पर मिला दंड हो, प्रभात रंजन
हमेशा एक परिपक्व किस्सागो की तरह ही खुद को अपने पाठकों के सामने पेश किया है | ज़बरदस्ती
के भाषाई आडंबर से परे महज अपनी किस्सागोई के जरिये अपनी दो किताबों “जानकीपुल”{भारतीय ज्ञानपीठ} और “बोलेरो
क्लास”{प्रतिलिपि बुक्स} को हम जैसे
अपने पाठकों की किताब की आलमारी में एक जरूरी उपस्थिति बना दिया है | “जानकीपुल”
के 2008 में ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने के तीन साल बाद अपनी दूसरी किताब “बोलेरो क्लास”
से खुद को और एक्सटेंड करते हुये प्रभात “इंटरनेट, सोनाली और
सुबिमल मास्टर की कहानी” , “अथ कथा ढेलमरवा गोसाईं” और “ब्रेकिंग न्यूज उर्फ इंदल सत्याग्रही
का आत्मदाह” जैसी कहानियों द्वारा एक नया धुला धुला सा आकर्षण बुनते हैं अपने पाठकों
के इर्द-गिर्द |
अपनी लिखी समस्त कहानियों में सबसे पसंद वाली कहानी चुनने का आग्रह
करने पर प्रभात “मिस लिली” की चर्चा करते हैं और समकालीनों में नीलाक्षी सिंह की “परिंदे
का इंतजार सा कुछ” को चुनते हैं |
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
आह ! आँखों के रस्ते दिल दिमाग पर हावी होता हुआ
इश्क़ का अफ़साना था वो कोई, जब पहली बार मनीषा का लिखा पढ़ा था...”कुछ भी तो रूमानी नहीं”...नहीं, कुछ भी तो
रूमानी नहीं था उसमें सचमुच...जो था सब रूहानी था, स्वार्गिक
था | कहानी की नायिका वनमाला से तो इश्क़ हुआ ही साथ में लेखिका
से भी | चिड़िया के अंडे को किसी आदम स्पर्श के बाद तज देने की बात
को
रचनाकार द्वारा फेंक दिये गये ड्राफ्ट से जोड़ना...उफ़्फ़ ! कैसी इमेजरी थी कि घंटों
एक ट्रांस की अवस्था में रहा था ये पाठक | वो तब की
बात थी...सदियों पहले की...तब से “टिटहरी” , “अधूरी तस्वीरें”, “लेट अस
ग्रो टूगेदर”, “कालिंदी”, “फाँस”, “स्टिकर”, “कठपुतलियाँ”, “बिगड़ैल बच्चे”, “स्वांग”, “भगोड़ा”, “कुरजां”, “केयर ऑफ
स्वात घाटी”...और अभी हाल ही में आई हुयी किसी पत्रिका में “मि॰ वालरस”...इन तमाम कहानियों
से गुज़रते हुये मनीषा के मोहपाश में बंधते ही चले गए जाने कितने मेरे जैसे पाठक |
अपनी अद्यतन किताब “गंधर्व गाथा” में जिन फ्रीक्स का ज़िक्र उठाती
हैं मनीषा, जैसे खुद को ही डिफाइन नहीं कर रही होती हैं वो ? खुद भी किसी फ्रीक से कम कहाँ लगती हैं हम पाठकों को हमारी
ये महबूब लेखिका | तेरह सालों से अनवरत एक के बाद एक सम्मोहित करती कहानियाँ
किसी फ्रीक के वश की ही बात तो हो सकती है | पहली कहानी
“क्या यही वैराग्य है” कथादेश के सितम्बर 2000 वाले अंक में आई थी | तब से लेकर
पाँच कहानी-संकलन- “बौनी होती परछाईं”(मेधा बुक्स), “कुछ भी
तो रूमानी नहीं”(अंतिका प्रकाशन), “कठपुतलियाँ”(भारतीय ज्ञानपीठ), केयर ऑफ स्वात
घाटी”(राजकमल) और “गंधर्व-गाथा”(सामयिक) और दो उपन्यासों- “शिगाफ़”(राजकमल) और “शाल-भंजिका”(भारतीय
ज्ञानपीठ), के जरिये किस्सागोई की जिस ऊंचे सिंहासन पर जा बैठी हैं मनीषा
कुलश्रेष्ठ वो बस कोई फ्रीक ही कर सकता है |
अपनी अब तक की लिखी सारी कहानियों में मनीषा “कुरजाँ” को दिल के सबसे
करीब मानती हैं और अपने समकालीनों में पंकज सुबीर की “सी-7096” और किरण सिंह की “संझा”
का ज़िक्र करती हैं |
- विमल चन्द्र पाण्डेय
वर्षों पहले पढ़ी एक कहानी “जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस
प्रेम कहानी च” का शीर्षक जहाँ मेरे पाठक-मन पर अरसे तक चिपका रह गया था, वहीं इस कहानी
के अपने अनूठे शिल्प, कथ्य और पात्रों में खुद को शामिल करने वाले इस लेखक से प्रथम-दृष्टि
में ही एक अजब-सा मोह हो गया था | विमल के पहले कहानी-संग्रह “डर” को वर्ष 2008 के लिए मिला
नवलेखन पुरस्कार
फिर कोई हैरानी लेकर नहीं आया | अपनी पहली
कहानी “चरित्र”, जो साहित्य अमृत के जुलाई 2004 अंक में आई थी और जो अब उनके
पहले कहानी-संग्रह में “वह जो नहीं” के शीर्षक से शामिल है, के बाद से
इन बीते सालों में विमल ने हमें दो कहानी की किताबें सौपी हैं | दूसरा संग्रह
“मस्तूलों के इर्द गिर्द” आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है और जल्द ही एक उपन्यास
“भले दिनों की बात थी” भी आधार से आने वाला है |
कुछ बड़े ही अंदाज़ में ढेरों ही चमत्कृत करने वाली कहानियाँ सुनाई
हैं विमल ने हमें इन चंद कुछेक सालों में | उनकी किस्सागोई
की जो एक खास बात है वो किस्सों में शामिल कुछ विशेष दृश्यों की बुनावट, जो उनकी किस्सागोई
को बहुत विशिष्ट बनाती हैं...जैसे “सोमनाथ का टाइम-टेबल” का वो सोमनाथ का गिरगिट को
मारकर उसके खून में पाँच फिट लंबा धागा सानने वाला दृश्य हो या कि “मन्नन राय गजब आदमी
हैं” का वो सुनील के हाथ में तने हुये तमंचे के सामने मन्नन राय का असहाय खड़े हो जाने
का दृश्य....ऐसे ही जाने कितने और जो विमल की कहानियों का हिस्सा होते हुये भी खुद
का एक अलग सा अस्तित्व बनाए होते हैं...कहानी के बीच कहानी जैसा कुछ | उनकी चर्चित
कहानी “डर” का ही वो लड़की वाला एक कब्र से दूसरे कब्र के पीछे छिपने वाले दृश्य को
ही लिया जाये...जैसे सामने देखे जा रहे किसी चलचित्र की भांति सब कुछ उभर कर आ जाता
है पढ़ते हुये पाठक की आँखों के सामने |
“मस्तूलों के इर्द गिर्द” को विमल अपनी लिखी कहानियों में सर्वाधिक
पसंदीदा कहानी के रूप में चुनते हैं और अपने समकालीनों में मंजूलिका पाण्डे की लिखी
“अति सूधो स्नेह”, जो अन्यथा बहुत कम चर्चित रही है, का नाम लेकर
चकित कर देते हैं हमें |
...तो ये बनी टीम नई सदी के किस्सागोओं की...पूर्णतया पाठकों की पसंद
के आधार पर | हालाँकि ये कहना कि ये टीम अपने-आप में मुकम्मल है जायज नहीं
होगा | महज चौबालीस पाठकों को पूरे मुल्क का नजरिया मान लेना उचित
तो नहीं ही होगा किसी भी दृष्टिकोण से |
अंकों के आधार पर इस फ़ेहरिश्त में कम से कम दो और कथाकार
तो आते ही हैं- वंदना राग और सुभाषचंद्र कुशवाहा | वंदना राग
की पहली कहानी “झगड़ा” 1999 में हंस में आई थी | “यूटोपिया”, “छाया युद्ध”, “शहादत और
अतिक्रमण”, “कबीरा खड़ा
बाज़ार” जैसी कहानियाँ वंदना की किस्सागोई का चरम है | राजकमल से
आई उनकी पहली कहानी कि किताब “यूटोपिया” एक जरूरी संग्रह है हम पाठकों के बुक-शेल्फ में | वहीं सुभाष चंद्र कुशवाहा की पहली कहानी “भूख” कथादेश के नवलेखन अंक जून 2001 में आई थी | सुभाष के अब तक तीन कहानी संकलन आ चुके हैं- “हाकिम सराय का आखिरी आदमी”(प्रकाशन संस्थान), “”बूचड़खाना”(शिल्पायन) और “होशियारी खटक रही है”(अंतिका) | “चुन्नी लाल की चुप्पी”, “चक्रव्यूह के भीतर” और “जागते रहो” जैसी कहानियाँ रचने वाले सुभाष अपने कहानियों के ग्रामीण परिवेश और शोषितों की आवाज़ को थीम बनाते हुये अपनी एक अलग-सी पहचान बनाते हैं | उनकी लिखी “भटकुईयाँ इनार का खजाना” और “लाल हरपाल के जूते” ख़ासी चर्चित कहानियाँ रही हैं |
बाज़ार” जैसी कहानियाँ वंदना की किस्सागोई का चरम है | राजकमल से
आई उनकी पहली कहानी कि किताब “यूटोपिया” एक जरूरी संग्रह है हम पाठकों के बुक-शेल्फ में | वहीं सुभाष चंद्र कुशवाहा की पहली कहानी “भूख” कथादेश के नवलेखन अंक जून 2001 में आई थी | सुभाष के अब तक तीन कहानी संकलन आ चुके हैं- “हाकिम सराय का आखिरी आदमी”(प्रकाशन संस्थान), “”बूचड़खाना”(शिल्पायन) और “होशियारी खटक रही है”(अंतिका) | “चुन्नी लाल की चुप्पी”, “चक्रव्यूह के भीतर” और “जागते रहो” जैसी कहानियाँ रचने वाले सुभाष अपने कहानियों के ग्रामीण परिवेश और शोषितों की आवाज़ को थीम बनाते हुये अपनी एक अलग-सी पहचान बनाते हैं | उनकी लिखी “भटकुईयाँ इनार का खजाना” और “लाल हरपाल के जूते” ख़ासी चर्चित कहानियाँ रही हैं |
इस नई सदी के उन किस्सागोओं की पूरी खेप का नाम लिए बगैर, जिनकी कहानियों
को वोटिंग के दौरान खूब-खूब पसंद किया गया और जिनकी कहानियाँ वाकई में हम पाठकों के
वास्ते किसी ग्रैंड ट्रीट से कम नहीं रहीं, ये आलेख अधूरा
ही रहेगा…और इसलिए भी कि इस खेप के हर नाम ने हम पाठकों के साथ एक
अनूठा रिश्ता जोड़ा है अपनी लेखनी के बजरिये और हम पाठकगण शुक्रगुजार हैं इन सारे किस्सागोओं
के...और आलेख पढ़ने वालों को उनकी चर्चित दो से तीन कहानियों की याद दिलाना चाहते हैं-
अजय नावरिया (गंगासागर, यस सर), अनुज(कैरियर गर्लफ्रेंड और विद्रोह, बनकटा, खूंटा), इंदिरा दाँगी(एक
सौ पचास प्रेमिकाएं, लीप सेकेंड),
ओमा शर्मा(दुश्मन मेमना, भविष्यदृष्टा), कैलाश वाणखेड़े(सत्यापित), गीताश्री(गोरिल्ला
प्यार, प्रार्थना के बाहर), तरुण भटनागर(गुलमेंहदी
की झाड़ियाँ, हाइलियोफ़ोबिक,
लार्ड इरविन ने इगनोर किया), नीला प्रसाद(सातवीं
औरत का घर, लिपस्टिक),
पंखुड़ी सिन्हा(किस्सा-ए-कोहेनूर, समांतर रेखाओं
का आकर्षण), पराग मांदले(उदास रौशनी में डूबता सूरज, राजा कोयल
और तंदूर), प्रियदर्शन(उसके हिस्से का जादू, ख़बर पढ़ती
लड़कियाँ), मनोज कुमार पाण्डेय(चंदू भाई नाटक करते हैं, शहतूत, लकड़ी का साँप), मनोज रूपड़ा(दफ़न, रद्दोबदल, टावर ऑव सायलेंस), मो॰ आरिफ़(फूलों
का बाड़ा, तार, मौसम), राकेश मिश्र(लालबहादुर का इंजन, शह और मात), रवि बुले(आईने
सपने और वसंतसेना, यूं न होता तो क्या होता, लापता नत्थू
उर्फ दुनिया ना माने), वंदना शुक्ल (उड़ानों के सारांश, जलकुंभियाँ), विमलेश त्रिपाठी(अधूरे
अंत की शुरुआत, एक चिड़िया एक पिंजरा और कहानी), विवेक मिश्र(हानिया, ऐ गंगा बहती
हो क्यों), शशिभूषण(ब्रह्म हत्या, काला गुलाब), श्रीकांत
दूबे(उर्फ, पूर्वज), संजय कुन्दन(बॉस की पार्टी, ऑपरेशन माउस), सलिल सुधाकर(शैतान
बुश के कुनबे की औरतें, गोट्या को बचा लो, बिरादर), हुस्न तबस्सुम
निहाँ(गरज ये कि दुर्ग ढह चुका है, नीले पंखो वाली लड़कियां) |
अव्वलो-आखिरश-दरम्यान की तर्ज पर कुछ ऐसी अपेक्षायें जगा दी हैं इन
किस्सागोओं ने हम पाठकों के मन-मस्तिष्क पर कि अब उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं...हर बार
उन अपेक्षाओं पर खरे उतरने की मुश्किल |
पहली बात ये कि इनमें से कई किस्सागोओं की कहानियाँ अलग-अलग
पत्रिकाओं में छप कर जहाँ एक तिलिस्म बुनती हैं, वहीं संकलन
में एक साथ आने के बाद यही कहानियाँ एक दोहराव का अहसास दिलाती हैं...कि जैसे कहानीकार
एक ही परिवेश, एक ही पात्र और एक ही प्लॉट को बार-बार दुहरा रहा हो | दूसरी बात
कि इनमें से कई आत्म-मुग्धता के उस वृत में जा खड़े हो गए हैं, जिसके बाहर
तख्ती लगी हुयी है डेंजर जोन की, लेकिन जिसे ये कुछ किस्सागो देख कर भी नज़रअंदाज़ कर रहे हैं
| जितनी जल्दी इन्हें ये तख्ती दिखे, उतना ही बेहतर
जहाँ उनके लिए तो होगा ही वहीं हम पाठकों के लिए भी होगा...क्योंकि जिस ऊंचे सिंहासन
पर हम पाठकों ने इन्हें बिठा रखा है,
उस से नीचे उतार देने की निर्दयता दिखाने में दरअसल इन्हीं
पाठकों को ज़रा भी विलंब नहीं लगेगा |
niceeeeeee
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