काफ़िया बिछते हुये, मिसरे बुनते हुये, बहर बिठाते हुये जरूरी नहीं कि जो ग़ज़ल कहीं जा रही हो वो तुमसे ही मुखातिब हो हर बार..फिर भी चलो, सुन ही लो ये ग़ज़ल :-
बात रुक-रुक कर बढ़ी, फिर हिचकियों में आ गई
फोन पर जो हो न पायी, चिट्ठियों में आ गई
सुबह दो खामोशियों को चाय पीते देख कर
गुनगुनी-सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गई
ट्रेन ओझल हो गई, इक हाथ हिलता रह गया
अधखुली रक्खी रही यूँ ही वो नॉवेल गोद में
उठ के पन्नों से कहानी सिसकियों में आ गई
चार दिन होने को आये, कॉल इक आया नहीं
चुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई
बाट जोहे थक गई छत पर खड़ी जब दोपहर
शाम की चादर लपेटे खिड़कियों में आ गई
रात ने यादों की माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, उँगलियों में आ गई
{मासिक "वागर्थ" के सितंबर 2013 अंक में प्रकाशित}
'बात रुक-रुक कर बढ़ी, फिर हिचकियों में आ गई
ReplyDeleteफोन पर जो हो न पायी, चिट्ठियों में आ गई'
ये वाली हम ले जा रहे हैं अपने लिए. ग़ज़ल बहुत प्यारी लगी.
"चार दिन होने को आये, कॉल इक आया नहीं
ReplyDeleteचुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई"
तो महाराज आप कॉल कर लो ... बेचैन न रहो ... ;)
अपना ख्याल रखिएगा साथ साथ बाकी सब का !
जय हिन्द !
ReplyDeleteआपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी यह रचना आज हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल(http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/) की बुधवारीय चर्चा में शामिल की गयी है। कृपया पधारें और अपने विचारों से हमें भी अवगत करायें।
यह बुधवारीय नहीं सोमवारीय है, त्रुटी के लिए क्षमा प्रार्थी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteबहुत उम्दा! प्रतीकों का शानदार-जानदार प्रयोग।
ReplyDeleteसुबह दो खामोशियों को चाय पीते देख कर
ReplyDeleteगुनगुनी-सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गई...बहुत प्यारी गज़ल
बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन... सभी शेर quote करने लायक, बस मुझे "चुप्पी मोबाइल की अब बेचैनियों में आ गई" भाव में उतनी ही उम्दा होते हुए भी लय तोड़ने वाली लगी। पर शायद चुप्पी का कोई विकल्प न हो...
ReplyDeleteअधखुली रक्खी रही यूँ ही वो नॉवेल गोद में
ReplyDeleteउठ के पन्नों से कहानी सिसकियों में आ गई
बहुत सुंदर .प्रतीकों का उम्दा प्रयोग .
कुछ कहते बन नहीं रहा !
ReplyDeleteबड़ी प्यारी ग़ज़ल है . .
ReplyDeleteबधाई !
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete"वक्ते-रुख़सत की उदासी चूड़ियों में आ गई"
ReplyDeleteवैसे ज़रूरी ये भी नही कि "अगर कह दिया जाये कि बात तुमसे मुखातिब नही, तो सच में तुमसे मुखातिब ना हो " :P
behtreen abhivaykti....
ReplyDeleteबेहतरीन, और कोई शब्द नहीं।
ReplyDeleteप्यारी ग़ज़ल
ReplyDeleteप्रभावित दिल से। आपकी जनसत्ता रविवारी में छपी 'दूसरी शहादत' कहानी पढ़ी। अच्छी लगी।
ReplyDeleteकुछ ग़ज़लें ऐसी होती हैं जिन्हें पढने के बाद लगता है क्या कहें ? बोलती बंद हो जाती है भाई ---एक तो ऐसा काफिया और रदीफ़ उस पर ये जान लेवा निर्वाह ---हद हो गयी --हद क्या कमाल हो गया . जियो भाई जियो .
ReplyDeleteवाह इतनी सुंदर गजल अदभुत , आपकी कलम को शीश झुका कर नमन करता हूँ ,
ReplyDeleteReally! मजा आ गया ।
ReplyDeleteamazing...........
ReplyDeleteGunguni si dhoop utri pyaliyon mein aa gai... Lovely... Aapki dhoop lekar ja rahe hain... Wapsi ka irada nahi mera😃
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