30 December 2012

जला दे रात की परतें, ज़रा शबनम सुलगने दे...

....अजीब सी बेचैनी कैसी है ये कि व्यक्त होने के लिए छटपटाती है, लेकिन शब्दों का सामर्थ्य एकदम से निरीह लगने लगता है| इसी वहशियों से भरे मुल्क की रक्षा करने की सौगंध उठाई थी क्या आज से पंद्रह साल पहले?

 "निर्भया"..."दामिनी"...."अमानत" ...कितने नामों से पुकारते हैं हम उस बच्ची को जो असह्य पीड़ा सहती चली गई और छोड़ गई कितने ही सवाल आईने की शक्ल में...हमसब के समक्ष...हमसब को झकझोरती| हमें हमारे ज़मीर से रूबरू करवाती हुई क्या फ़रिश्तों के बीच अब सकून से होगी वो? हाँ, हम सब के लिए कम-से-कम अब इतना तो सकून है ही कि वो फ़रिश्तों के सानिध्य में है, जहाँ उस पर कोई इस बात का दवाब नहीं डालेगा कि उसे किस तरह के कपड़े पहनने चाहिये या इतनी रात गए बाहर नहीं निकलना चाहिये| तारीख़ इस बच्ची को बस जिंदा रखे अपनी स्मृतियों में, अपने संघर्ष में, अपने आक्रोश में...इतनी सी दुआ है ! आमीन !!  

एक कोई नज़्म सी हुई है अरसे बाद.... 


अजब-सा खौफ था रातों का पसरा कल तलक, लेकिन
अँधेरा आज है हैरान उजियारे के तेवर पर 
सिसकती थी कभी चुपचाप जो धरती ये सहमी सी 
उफनती आ गयी सैलाब लेकर इक नदी बाहर  

पिघल जाने दे ज़ंजीरों को, उठने दे सभी रस्में
कहीं ऐसा न हो तूफ़ान फिर थामे न थम पाये 
लगा दे आग अब बरसात की बूंदों में भी थोड़ी
जला दे रात की परतें, ज़रा शबनम सुलगने दे

सुलगने दे ज़रा सा और ये, कुछ और ये लौ अब 
हवा भी तो डरी-सी इन चरागों की तपिश से है
हटा ले पट्टियाँ सारी, सभी ज़ख़्मों को रिसने दे
नहीं दरकार हैं मरहम कोई, ये टीस उठने दे

सुनो इन चीख़ती खामोशियों को गौर से थोड़ा
कि दीवारें गिरायेंगी सभी इक दिन तुम्हारी ये 
उमड़ने को करोड़ों टोलियाँ बादल की हैं बेताब
है कितना दम ज़रा देखें तुम्हारी आँधियों में अब

Rest in peace, Nirbhaya ! You suffered on behalf of all of us....just rest in peace now !!

12 comments:

  1. .
    .
    .
    तुझ पर जो बर्बरता हुई
    अपवाद था, नियम नहीं
    माना कि लुच्चे हैं, दरिंदे भी
    पर अपने इसी समाज में
    बाप बेटे भाई हैं, प्रेमी-पति भी
    जो तस्वीर बदलेंगे , लड़की


    तंद्रा से झकझोर कर अब
    सब को जगा गयी है तू
    तेरे जाने का दुख तो है
    पर है यह दॄढ़ निश्चय भी
    आगे ऐसा नहीं होने देंगे
    कर हम पर भरोसा, लड़की


    आज तुम हो चली गयी
    नाम तुम्हारा नहीं जानता
    कुछ अगर कह सकता तुम्हें
    तो बार बार यही कहता मैं
    माना कि तुम हो छली गयी
    पर दुनिया इतनी बुरी नहीं, लड़की


    प्रिय गौतम,

    यह मुल्क वहशियों का नहीं, यह हम तुम जैसे करोड़ों का है... वहशी तो कुछ ही हैं सुंदर शरीर पर मवाद भरा मुंह लिये फुंसी की तरह... हमें नश्तर उठाना होगा इस फुंसी को चीरने के लिये...

    हम सभी का भरोसा कायम रहे... एक दूसरे पर, अच्छाई पर और दुनिया की हर चीज से ज्यादा प्यारे अपने वतन पर भी... आमीन !


    ...

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  2. बिलकुल सही कहा हैं गौतम तुमने ,
    और एक बात जब भी कोई ऐसी घटना होती हैं लोग अपवाद कह देते हैं , अभी तो उसको मारे दो दिन नहीं हुए और दूसरी घटना फिर हुई एक नाबालिग के साथ बस में दिल्ली मे , ये सब अपवाद नहीं हैं , नासूर हैं , मवाद हैं सदियों का जहां बेटी का अस्तित्व हैं ही नहीं और औरत महज एक शरीर हैं पुरुष की कामवासना की पूर्ति के लिये .तभी तो यहाँ कहा जाता हैं स्त्री पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं जबकि कहना चाहिये पति पत्नी एक दुसरे के पूरक हैं . पुरुष को परमेश्वर बना कर उसके लिये सब जयाज हैं और औरत के साथ जब कुछ हो तो "अपवाद " हैं

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  3. उम्मीदें बहुत हैं तो आशंकाएं भी बहुत है. यह अंतहीन संवेदनहीनता व्याप्त है समाज में और बहुत कुछ बदलना बाकी है.

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  4. अब तो बस ये ही कह सकते है कि ...ईश्वर उसकी इस पवित्र यात्रा में उसकी आत्मा को शांति दे

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  5. सुलगने दे ज़रा सा और ये, कुछ और ये लौ अब
    हवा भी तो डरी-सी इन चरागों की तपिश से है
    हटा ले पट्टियाँ सारी, सभी ज़ख़्मों को रिसने दे
    नहीं दरकार हैं मरहम कोई, ये टीस उठने दे
    सच है इस ज़ख़्म को तब तक रिस्ते रहना चाहिये जब तक कोइ उप्युक्त मरहम न मिले
    और केवल मरहम की बात भी नहीं है जब तक हमारी विकृत मानसिकता,,, ownership कि मानसिकता न बदलेगी ,जब तक हम औरत को इन्सान की जगह ’माल’ या property समझना नहीं छोड़ेंगे कुछ नहीं होगा गौतम ,,,ये केवल एक दामिनि की बात नहीं है पूरी क़ौम की बात है और सच तो ये है कि केवल नारी की बात भी नहीं आज तो लड़के भी सुरक्षित नहीं हैं ,,,,,, हमें उन सब के ख़िलाफ़ एक लंबी जंग लड़नी होगी जो इस समाज को पतन की ओर ले जाने का काम सफलतापूर्वक कर रहे हैं

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  6. यह दर्द बिखर कर हवाओं में , हर व्यक्ति का हो गया , हो जाए !

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  7. अजब सी वेदना समा गयी है भीतर। आँसू निकल रहे हैं, पर वेदना स्थायी-सी हो गयी है। शब्द कुंठित है, उनकी सामर्थ्य चुक गयी है। जो कहूँ, वह बौना होता है-सो चुप हूँ। चुप हूँ, तो कट रहा हूँ भीतर-भीतर।

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  8. नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ...

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  9. सिसकती थी कभी चुपचाप जो धरती ये सहमी सी
    उफनती आ गयी सैलाब लेकर इक नदी बाहर

    य़ह सैलाब बहा ले जाये सारी बुराइयों को ।
    शुभ हो नववर्ष ।

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  10. 'सुलगने दे ज़रा सा और ये, कुछ और ये लौ अब
    हवा भी तो डरी-सी इन चरागों की तपिश से है
    हटा ले पट्टियाँ सारी, सभी ज़ख़्मों को रिसने दे
    नहीं दरकार हैं मरहम कोई, ये टीस उठने दे.'
    काश कि यह टीस सभी हृदयों में उठे और एक संवेदनशील संसार का आविर्भाव हो !

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