26 February 2018

मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर

[ कथादेश के फरवरी 2018 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का बारहवाँ पन्ना ]


नये साल के मचलते यौवन की शरारत कुछ इस क़दर सर चढ़ कर बोलने लगी थी कि मौसम ने एकदम से गंभीर अभिभावक वाला चोगा पहन लिया है और मौसम के इस गंभीर अवतार ने रूखे-सूखे-हरे-भूरे पहाड़ों को भी धवल श्वेत दुशाला उढ़ा कर मानो प्राणायाम रत योगी में तब्दील कर दिया हो | दो हफ़्ते पहले तक निष्ठुर कठोर दिखते ये पहाड़ कैसे अचानक से शांत समाधिस्थ तपस्वी की तरह दिखने लगे हैं ! बर्फ़बारी तनिक विलंब से ज़रूर शुरू हुई है, लेकिन अब जो शुरू हुई है तो जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही... विख्यात पोल-वाल्ट खिलाड़ी सर्जेई बुबका की तरह पिछले साल के ख़ुद अपने ही बनाए कीर्तिमान को ध्वस्त करते हुए | तीन हफ़्ते में ही अठारह फीट...हायsss ! सरहद पर खड़ी कंटीली बाड़ का जैसे कोई वजूद ही ना रह गया हो | इस पार से लेकर उस पार तक सब कुछ सफ़ेद | कोई फ़र्क नहीं पड़ता बर्फ़ की इस सफ़ेद चादर को सरहद द्वारा की गयी इलाक़ाई बँटवारे से |

...और इस बर्फ़बारी से शून्य से भी नीचे गिरता तापमान भी कहाँ कोई भेदभाव करता है किसी में ! सरहद-प्रहरियों और सरफिरे जेहादियों...दोनों को बिलकुल बराबर-बराबर सर्दी पहुँचाता है | प्रहरियों को तो खैर कोई विकल्प ही नहीं दिया है उनकी हरी वर्दी ने...उन्हें तो बदस्तूर अपनी ड्यूटी निभानी है | हाँ, कथित जेहाद के तमाम भूत-प्रेत हड्डियों को भेदती इस सर्दी की सिहरन में डर कर दुबके पड़े हैं कहीं कम्बलों में तपिश भरते काँगड़ियों को बदन से चिपकाये | फिलहाल उनका और उस पार बैठे उनके आकाओं का जेहाद के लिए लिया गया कश्मीर को आज़ाद करवाने का तथाकथित प्रण-व्रण आकस्मिक अवकाश पर गया लगता है | जिहाद का एक पखेरू तक नज़र नहीं आ रहा दूर-दूर तक बिछी इस सफ़ेद चादर के अंतहीन फैलाव में |

इधर परतों का अम्बार लगाती बर्फ़बारी ने यूँ सुकून तो दिया है थोड़ा सा कि हर लम्हा चौकन्ना रहने की दरकार नहीं, लेकिन मुश्किलें अब अलग किस्म की हैं ...बंकरों के छतों और खिड़कियों पर से गिरती बर्फ़ को लगातार हटाते रहने की मुश्किलें कि कहीं छत उनके बोझ से दरक ही ना जाए और रायफलों की नालें बंद हुई खिड़कियों से दुश्मन को निशाने पर ना ले पाए ...एक बंकर से दूसरे बंकर तक के बीच रास्तों की हर घंटे-दो घंटे में सफाई करते रहने की मुश्किलें कि सरहद पर गश्त बरकरार रहे और बंकरों तक राशन पहुँचता रहे | यूँ हर एक बंकर में चाय बनाने की प्रचुर सामग्री, ढेर सारे मैगी के पैकेट्स, मिट्टी के तेल के बैरल वगैरह रखवा दिए गए हैं | कई बार बर्फ़ीले तूफ़ान में दो-दो दिन तक एक बंकर से दूजे बंकर तक की सत्तर से सौ मीटर तक की दूरी तय करना भी दुश्वार हो जाता है | लेकिन इन सबसे ज्यादा मुश्किल और डर ताज़ा गिरी बर्फ़ों पर एवलांच आने का रहता है | यूँ अब तो बटालियन के सारे जवान पूरी तरह प्रशिक्षित हो चुके हैं इस विपदा से निबटने के लिए ...लेकिन फिर भी हर पल एक आशंका सी बनी तो रहती ही है | जब तक एक भी गश्ती-दल बाहर रहता है बंकर से, चैन से बैठा नहीं जाता इधर | एक अजीब सी बेचैनी घेरे रहती है...और इस बेचैनी में वायरलेस सेट पर आते हर मैसेज से पहले की वो  शुरुआती “किर्र-किर्र” ह्रदय की धड़कनों को सौ-सौ बाँस की उछाल भर देता है, जब तक कि वायरलेस ऑपरेटर का उस “किर्र-किर्र” के तुरत बाद आया हुआ “ऑस्कर-किलो-ओवर” कानों तक ना पहुँच जाये | अपनी इन जब-तब उछलती धड़कनों पर तरस खाकर ही ये स्टैण्डर्ड ऑर्डर जारी कर रखा है मैंने कि किसी भी संदेशे की शुरुआत में “ऑल ओके, ओवर” कहा जाएगा, फिर मुख्य संदेशे पर आना है | अब तो खैर ये ट्रेंड ही बन चुका है |

देखो ना डायरी डियर, इन विगत डेढ़-दो सालों में यूँ लगता है पूरा का पूरा अस्तित्व जैसे आशंकाओं, अंदेशों और एक हर पल के अनजाने-से भय में लिपटी हुई मूरत बन चुका है | अपने जवानों...अपने जूनियर ऑफिसरों के समक्ष जोश, जज़्बे और बहादुरी की बात करता हुआ कर्नल अपने इन्हीं जवानों और जूनियर ऑफिसरों की सलामती के लिए अन्दर से कितना डरा रहता है, कोई जान भी नहीं पायेगा कभी | जाने क्यों होता है ये डर...ये भय ? और उम्र के एक मोड़ के बाद यही डर, यही भय अपने लिए कम किन्तु अपने अपनों के लिए ज़्यादा क्यों हो जाता है ? इस डर के भी जाने कितने अलग-अलग रूप हैं | वक़्त-वक़्त के हिसाब से जाने कितने चोगे बदल-बदल कर अवतरित होते रहता है ये भय अपने भिन्न-भिन्न विकराल शक्लों में | प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवा-सदन’ का प्रसंग याद आ रहा है | रात के अँधेरे में जब सदन को गाँव से निकलना था किसी ज़रूरी कार्य के लिए और उस अँधेरी रात में जब वो चाह कर भी भूत-प्रेत का ख़याल अपने मन में नहीं लाना चाहता था...लेकिन ना चाहते हुए भी वही ख़याल मन-मस्तिष्क पर धावा बोलते रहेत हैं और तभी उस कुख्यात पीपल पेड़ का रस्ते में आना जिसके बारे में गाँव में मशहूर था कि उस पर भूतों का डेरा रहता है | सदन की वो मानसिक स्थिति ! भय की...डर की पराकाष्ठा ! जाने कैसी-तो-कैसी मानसिक विचलन की स्थिति में आकर सदन का उस पीपल के पेड़ का पहले तो परिक्रमा करना और फिर उसके तने को पकड़ कर ज़ोर-ज़ोर से झिझोड़ना | वहीं प्रेमचंद लिखते हैं कि “भय की चरम सीमा ही साहस है” | जहाँ तक मेरी याददाश्त कहती है तो यह एक पंक्ति प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में सबसे अधिक बार...बार-बार लिखा है |

लेकिन अपने इस अजाने से, इस अपरिभाषित से भय का चरम कहाँ से ढूँढ कर लाऊँ मैं | आया कहाँ से यक-ब-यक ही ये कमबख्त़ ? बचपन से तो बड़ा नहीं हुआ साथ-साथ गुपचुप ? किसी रोज़...हाँ, एक रोज़ ज़रूर इस डर के...इस भय के चंद ऐसे क़िस्से लिखूँगा, जो अब तक ना सुना गया है और ना ही सुनाना गया है...

हर्फ़ों की जुबानी हो बयां कैसे वो क़िस्सा
लिक्खा न गया है जो सुनाया न गया है

नरेश सक्सेना की एक कविता सर उठाती है इस सर्द बर्फ़ीली रात के दूसरे पहर एकदम अचानक से...

हवा के चलने से
बादल कुछ इधर-उधर होते हैं
लेकिन कोई असर नहीं पड़ता
उस लगातार काले पड़ते जा रहे आकाश पर

मुझे याद आता है बचपन में
घर के सामने तारों से लटका
एक मरे हुए पक्षी का काला शरीर

मेरे साथ ही साथ बड़ा हो गया है मेरा डर
मरा हुआ वह काला पक्षी आकाश हो गया है


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2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

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  2. किसी रोज़...हाँ, एक रोज़ ज़रूर इस डर के...इस भय के चंद ऐसे क़िस्से लिखूँगा, जो अब तक ना सुना गया है और ना ही सुनाना गया है...
    जरूर लिखिए गौतम जी, जानने दीजिए लोगों को जो छोटी छोटी बातों से डरी सहमे रहते हैं, जानने दें कि क्या है असल में डर !!!

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