अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब...
मुक्तिबोध की लिखी ये पंक्तियाँ, जो उनकी ख्यात कविता “अँधेरे में” का हिस्सा हैं,शायद सबसे ज़्यादा उद्धृत की जाने वाले काव्य-पंक्तियों में शुमार किए जाने का रौब गाँठती हैं। अपने दुरूह शिल्प और अबूझ बिम्बों का ताना-बाना लिए लगभग चालीस पृष्ठों में फैली (या सिमटी) हुई ये कविता आख़िर किस वज़्ह से नई कविता के सिरमौर का रुतबा अख़्तियार कर लेती है, समझने के लिए मेरे अंदर का निरीह सा पाठक इसे पढ़ता है...बार-बार पढ़ता है, सैकड़ों बार पढ़ता है। सस्वर पढ़ने की कोशिश करता है, बुरी तरह से पराजित होता है। थम-थम कर… ठहर-ठहर कर पढ़ता है, एकदम पस्त निढ़ाल हो जाता है। और फिर कविता में यत्र-तत्र बिखरे कुछ अद्भुत जुमलों को उठाता है,अपनी डायरी में नोट कर इसे अपनी पाठकीय सफलता मान लेता है और देर तक इतराता है।
असंख्य अनगिन विमर्शों के इस हाहाकारी दौर में हिन्दी-साहित्य के हम जैसे कितने ही समर्पित पाठक तनिक कनफ्यूज़ से बैठे हैं। प्रगतिशीलता के नाम पर महज़ चंद कथित रूप से स्थापित नाम एक किसी रचना-विशेष को आख़िर किस पैमाने पर तौलते हैं और उसे भारी-भरकम विशेषणों, यथा “उत्तर-आधुनिक काल का प्रस्थान बिन्दु” या फिर “भूमंडलीकरण के ख़तरे के विरुद्ध शंख-नाद”, से सुशोभित कर हमारी तरफ उछाल देते हैं कि लो पढ़ो! नहीं समझ में आने का ऐलान आपको मूर्खों, जाहिलों की पंगत में बिठा देता है और “अहा, क्या कविता है” जैसे कुछ उद्गार आपको अपने पाठक-मन के प्रति बेईमान बनाता है। कई सारे सवाल उमड़-घुमड़ कर बरसते हैं लगातार। क्या कारण है कि ठीक उसी समय की मणींद्र नारायण चौधरी उर्फ़ राजकमल द्वारा लिखी हुई कविता “मुक्तिप्रसंग” अपने शिल्प, अपनी वेदना, अपनी कसावट में मुक्तिबोध की “अँधेरे में” के बनिस्बत कई गुणा बेहतर होते हुए भी एकदम से नकार दी जाती है? या फिर ख़ुद मुक्तिबोध की ही दूसरी कविता “ब्रह्मराक्षस”, जो हिन्दी-साहित्य की समस्त लंबी कविताओं में अपनी इमेजरी और खूबसूरत छंद (गीतिका/मरुकनिका या उर्दू का बहरे-रमल) की एक मिसाल है, को ही क्यों नहीं “अँधेरे में” के जैसा रुतबा दिया जाता है?
मेरे अंदर के सजग पाठक को यह सब कुछ एक बड़ी...बहुत बड़ी ‘कॉन्सपिरेसी’ का शातिर हिस्सा लगता है। जानता हूँ, इस अदने से पाठक के इस उद्गार पर कई भृकुटियाँ उठ खड़ी होंगी... लेकिन प्रत्युतर में मैं ख़ुद अपने प्रिय कवि की ओट में जा खड़ा होता हूँ कि “अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे”। एक बड़ी साजिश के तहत चतुराई से ‘पॉलिटीकली करेक्ट’ रहने की कुशलता आधुनिक कविता में अवसाद को स्थायित्व और कविताई को गुमशुदगी प्रदान करती जा रही है। कमाल की बात ये है कि जो कविता सारे मठ और गढ़ को तोड़ने का डंके की चोट पर ऐलान करती है, उसी कविता को वापस अघोषित किन्तु स्पष्ट रूप से दुष्टिगोचर मठ/गढ़ के निर्माण की नींव के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। साठोतरी कवियों और आलोचकों की एक पूरी पीढ़ी जिस तरह से कलावादी और प्रतिक्रियावादी कविताओं के ज़िक्र पर नाक-भौं सिकोड़ती दिखती है, उसी पीढ़ी को “अँधेरे में” का प्रतिक्रियावाद नज़र नहीं आता। जैसा कि “चाँद का मुँह टेढ़ा है”, जिसमें यह कविता पहली बार संकलित हो कर सामने आई, के प्रथम संस्करण की भूमिका में ख़ुद शमशेर जैसे हिन्दी कविता के महारथी लिखते हैं कि नागपुर में अपने प्रवास के दौरान एम्प्रेस मिल के मज़दूरों पर जब गोली चली तो मुक्तिबोध रिपोर्टर की हैसियत से घटनास्थल पर मौजूद थे। “अँधेरे में” शीर्षक कविता उनके नागपुर जीवन के बहुत सारे संदर्भ समेटे हुए है। क्या अधिकांश कविताएँ किसी न किसी घटना-विशेष, स्थान-विशेष, सत्ता या साम्राज्य विशेष की प्रतिक्रिया में ही नहीं लिखी जाती? फिर कैसे कोई कविता प्रतिक्रियावादी का ठप्पा लगा कर ख़ारिज कर दी जाती है, और कोई कविता तमाम तरह के गहनों से लाद दी जाती है? जिस कविता को राजेश जोशी “एक विराट स्वप्न फैंटेसी” और मंगलेश डबराल “हमारे समय का इकलौता महाकाव्य” का मैडल देते हैं, क्या कारण है कि हिन्दी-साहित्य के गिन के तीन सौ पाठक भी नहीं मिलते, जिन्होंने इस कविता को पढ़ा तक हो?
ये प्रश्न विचलित करते हैं मुझ जैसे कविताशिक़ों को। लेकिन कविता के पाठकों का कविता से विचलित होना भी कोई मुद्दा है भला? जन की कविता जन का विषय उठाती है बस, लिखी तो प्रबुद्धों के लिए जाती है बस। एक बेहतरीन समकालीन कवि (जो की दोस्त भी है) ठसक के साथ ऐलान करता है कि वो ‘क्लास’ के लिए लिखता है ‘मास’ के लिए नहीं। लेकिन उसकी साफ़गोई एक कवि की ईमानदारी है और उस ईमानदारी का एक पाठक के रूप में सम्मान करता हूँ। इतनी ही साफ़गोई की अपेक्षा तमाम कवियों से करता हूँ। “अँधेरे में” की कविताई में क्रिएट किया हुआ विस्तृत लैंड-स्केप, दरअसल मुक्तिबोध के कवि की पनाहस्थली है, जहाँ वो छुप कर बैठ जाता है। उस पनाहस्थली में कवि एक नायक का निर्माण करता है...नायक जो इस्केपिस्ट है। पता नहीं क्यों लगता है कि मुक्तिबोध ज़िंदा होते तो निश्चित रूप से खीजते, क्योंकि अपने दोस्त-कवि वाली ईमानदारी मुक्तिबोध में दिखती (मुक्तिबोध की तरह ही लिखूँ तो दीखती) है मुझे...इतनी कल्पना तो कर ही सकता हूँ उनका एक घनघोर पाठक होने के नाते। कम-से-कम इस एक कविता को इतनी बुलंदी प्रदान किए जाने के तिरकम पर तो निश्चित रूप से झुँझलाते वो। वही प्रगतिशील मोर्चा जो तुक (rhyme) को एक सिरे से नकारता है, उसी मोर्चे को “अँधेरे में” के हास्यास्पद की हद तक बन आए तुकों से कोई परेशानी नहीं। हनु के साथ मनु, अकेले के साथ दुकेले, हायहाय-नुमा के साथ टॉलस्ताय-नुमा...लम्बी फ़ेहरिश्त बन जाएगी। मुक्तिबोध की ही पंक्तियों का फिर से सहारा ले कर कहना चाहूँगा इन समस्त दुदुंभी बजाते मोर्चों से-
“स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एक्ज़ामिन हिम थोरोली !”
जितना सोचता हूँ, यह सारा कुछ उतना ही एक बड़ी कॉन्सपिरेसी का हिस्सा लगता है यूँ इस ताह एक किसी कविता को सिरमौर घोषित कर देना। कविता पर चल रही, उठ रही तमाम बहसों की धमा-चौकड़ी में हम कविताशिक़ों को ये हिन्दी कविता का एक भीषण “लीन-पैच” वाला दौर नज़र आता है। लीन-पैच दरअसल क्रिकेट से जुड़ा शब्द है और उस बल्लेबाज के लिए इस्तेमाल होता है जो लगातार मैच दर मैच विफल हो रहा हो, रन ना बटोर पा रहा हो। एक तरह का मोह है ये लीन-पैच अपनी ही लिखी कविताओं के लिए अधिकांश कवियों का। दूर होते पाठकों को मृग-मरीचिका मान कर तमाम तरह की बहसें। अभी दो साल पहले एक स्थापित पत्रिका (वागर्थ) ने एक पीढ़ी-विशेष के कवियों की खेमेबाजी कर शेष सब कवियों को ख़ारिज करने की कॉन्सपिरेसी रची थी... “लॉन्ग नाईन्टीज” का ठप्पा लगा कर। हम सब पढ़ने वालों को दरअसल वो “नर्वस नाईन्टीज” की थरथराहट नज़र आई उसमें। ...कि तब जब कविता हर सफ़े, हर वरक़ पर असहाय कराहती नज़र आ रही थी, आत्म-मुग्ध कवियों की एक टीम बाकायदा बैंड-बाजे के साथ सामने आती है और एक दशक-विशेष पर चर्चा के बहाने अपने नामों और अपनी ही कविताओं का फिर-फिर से ढ़ोल बजाती है। बड़े सलीके से एक प्रश्नावली बुनी जाती है और फिर उतने ही सलीके से चयनीत नामों की एक फ़ेहरिश्त को वो प्रश्नावली भेजी जाती है... कभी सुना था कि नई-कहानी नामक तथा-कथित आंदोलन के पार्श्व में कहानिकारों की एक तिकड़ी ने सुनियोजित साजिश रच कर एक सिरे से हिन्दी-कहानी के तमाम शेषों-अशेषों-विशेषों को नकारने की ख़तरनाक सुपाड़ी उठाई थी। कुछ वैसा ही प्रयास हुआ इस “लॉन्ग नाईन्टीज” विमर्श के बजरीये। सलीके की बुनावट इस कदर कि कोई नाराज़ भी न हो, कोई विवाद भी ना उठे...लेकिन पाठकों द्वारा नकारी हुई अपनी कविताओं पर चर्चा भी हो जाये। काश कि इतना ही सलीका इन महाकवियों ने अपने शिल्प और कविता की कविताई पर भी दिखाया होता...!!! हम पाठकों के ठहाके तो तब और ज़ोर-ज़ोर से छूटने लगते हैं, जब टीम-चयन के दौरान पहले तो एक कवि-विशेष (स्वप्निल श्रीवास्तव) को पूर्व-पीढ़ी का अंतिम कवि कहते हुये खारिज कर दिया जाता है और फिर तुरत ही उस कवि-विशेष द्वारा एतराज जताने पर पत्रिका के अगले अंक में उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रथम कवि मान लिया जाता है... हाय रेsss , इतनी उलझन तो भारतीय क्रिकेट-टीम के चयनकर्ताओं के दरम्यान भी नहीं हुई होगी टीम चुनते समय।
इस पूरे “लॉन्ग नाईन्टीज” विमर्श में कॉन्स्पिरेसी की तमाम कलई तब बिखरती नज़र आती है, जब पहले तो ये सफाई दी जाती है कि “कविता या साहित्य में दशकवाद घातक है... किसी दौर की रचना पर दशक के अनुसार विमर्श उचित नहीं” और फिर तुरत ही अपनी दुदुंभी बजाने की उत्कंठा में ऐलान किया जाता है कि “किन्तु लॉन्ग नाईन्टीज समय का प्रस्थान बिन्दु है”... और जिसे पढ़ कर कविताई-आतंक से खौफ़ खाये हम पाठक मुस्कुराने लगते हैं इस शातिरपने पर। कैसी कविता, कहाँ की कविता कि जिसके सत्यापन के लिए एक पत्रिका के तीन से चार अंकों में जाने कितने पन्ने काले कर दिये गये। हम कविताशिक़ पाठक जो अधिकांशतया गद्य के अनुच्छेदों की ऊपर-नीचे कर दी गई पंक्तियों को इन महाकवियों द्वारा कविता कह दिये जाने पर आँख मूँद भरोसा कर लेते हैं और पढ़ते जाते हैं कि एक जुमले में ही सही, कहीं तो कविता का कवितापन दिख जाये...मगर हाय रे हतभाग! महाप्राण निराला के “मुक्त-छंद” के आह्वान को कब चुपके-चुपके “छंद-मुक्त” बना दिया गया और होने लगे तमाम तरह के विमर्श भी उस पर... कविता की कॉन्सपिरेसी थ्योरी में ये सबसे अव्वल नंबर पर आती है। उधर पश्चिम में, पोएट्री “फ्री-वर्स” ही है अब तलक...उस जानिब किसी ने “वर्स-फ्री” बनाने की हिमाकत नहीं की है। क्योंकि उस जानिब अभी भी कविता को कविता बनाए रखना ही सबसे बड़ा विमर्श है ना कि कथित आलोचकों का मुंह जोहना। लेकिन इस मुद्दे पर तो अब कुछ भी बोलना हाथी-चले-बाज़ार-कुत्ता-भूँके-हजार की तर्ज़ पर ही होता है अक्सर, जहाँ हाथी बिला शक वर्तमान कवियों की पूरी टोली के लिए आया है जो मदमस्त हो रौंदे चले जा रहे हैं अपने मासूम पाठकों को।
आइये, एक और थ्योरी का अवलोकन करते हैं आख़िर में। उदय प्रकाश इस दौर के महानतम कथाकार हैं और जिस पर शायद ही किसी को संदेह हो, जिनकी कहानियों का तिलिस्म हम सब पर सम्मोहन की तरह छाया हुआ है और हमारी पूरी पीढ़ी ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत मानती है कि हमने उस दौर में जन्म लिया जिसमें उदय प्रकाश ने कहानियाँ लिखीं। वही उदय प्रकाश अक्सर ही अपने वक्तव्यों में, विभिन्न साक्षात्कारों में ख़ुद को कहानीकार मानने से इंकार करते हैं और ख़ुद को एक कवि मनवाने में ही व्यस्त रहते हैं। हम जैसे उनकी मुहब्बत में डूबे उनके भक्तों को ये उनकी विनम्रता लगती है... लेकिन अतिशय विनम्रता भी कई बार संदेह की जननी होती है। ऐसा कह कर या ऐसा घोषित कर के शायद वो कविता के उस सिंहासन पर स्वयमेव जा बैठे हैं,जहाँ से वो जिसे चाहे महान कवि होने का कवच-कुंडल प्रदान कर सकते हैं। अभी हाल का ही भारत भूषण अग्रवाल सम्मान का विवाद इसी ओर इशारा नहीं करता? उस सिंहासन से जारी हुआ फ़रमान जहाँ एक स्थापित विलक्षण कवियत्री, जिससे हम पाठक हिन्दी-कविता के लिए ढेर सारी उम्मीदें बाँधे हुए थे, की अति-साधारण सी(अमूमन हर पाठकों के लिए) कविता को एकदम से साल की श्रेष्ठ कविता बना देता है, वहीं पैरोडी नामक एक चीप-सी विधा को कविता के प्रांगण में दाख़िला करवा देता है। निकट ही इसी कॉन्सपिरेसी का साइड-इफेक्ट यूँ होता है कि दो-तीन प्रतिभाशाली युवा कवियों की टोली छ्दम स्त्री नाम से फेसबुक पर कविता का हाहाकार मचा देती है। सोशल मीडिया पर उठे तूफ़ान के पीछे ज़रा सा हम झाँक कर देखें तो यह छद्म कविताई हाहाकार एक तरह से विरोध है इन युवा-कवियों का जो सवाल उठाता है कि यदि पोएटरी मैनेजमेंट उनमें से किसी ने लिखा होता तो शायद किसी का ध्यान तक नहीं जाता इस कविता पर।
सच कहूँ, तो यह सब सोच कर एक सिहरन सी होने लगती एकदम से...कुछ कुछ वैसी ही सिहरन जो गुमनामी बाबा के सुभाष चंद्र बोस होने और उनके उस हवाई दुर्घटना में ज़िंदा बच जाने की बातों को सुन कर उत्पन्न होती है या फिर चाँद पर नील आर्मस्ट्रोंग के न उतरे होने की बाबत सुन कर कि वीडियो में तो आर्मस्ट्रोंग के पीछे का अमेरिकन फ्लैग लहराता दिखता है जबकि चाँद पर तो हवा होती ही नहीं...
…और कविता की इन तमाम कॉन्सपिरेसी थ्योरी से बौखलाया हुआ ये कविताशिक़,प्रार्थना करता हुआ कि ये सब सिर्फ और सिर्फ एक थ्योरी ही हो और कविता इनसे परे,इन सबसे हट कर अभी भी शायद पवित्र बची हुई हो, लौटता है मुक्तिबोध की ओर आश्रय के लिए पुन:
उन्हीं के शब्दों में –
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-संभवा !
अरे!! ये तो पूरा शोध पत्र है!! कविता/कहानी सब शिकार हैं इस कॉन्सपिरेसी के.नई कहानी की प्रणेता त्रयी ने नई कहानी के नाम पर जो बवंडर खड़ा किया, कि पाठक औंधे मुंह गिर गया. हमेशा से खुद को साहित्य प्रेमी मानने वाला जीव इन कहानियों को न समझ पाने की खीझ भर गया. ऐसे अबोध पाठकों के लिये कोई जगह न थी नई कहानी के बीच. यही हाल कविता का है. कविता के नाम पर अनर्गल लिखने वाला नई कविता के पाले में होता है और वरिष्ठ कवि/साहित्यकार उसे गले लगा रहे होते हैं जबकि पाठक अवाक!!
ReplyDeleteबढ़िया ।
ReplyDeleteमुझे तो मुक्तिबोध जी भी बा. सी. मर्ढेकर जी के पंक्ति के लगते हैं।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
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