कवियों की बेतरह बढ़ती भीड़ में कविता एकदम से जैसे लुप्तप्राय हो गई है...हर जगह से, हर ओर से| मैं कोई आलोचक नहीं, न ही कवि हूँ| हाँ, कविताओं का समर्पित पाठक हूँ और एक तरह का दंभ करता हूँ अपने इस पाठक होने पर| अच्छी-बुरी सारी कवितायें पढ़ता हूँ| कविताओं की किताबें खरीद कर पढ़ता हूँ| पढ़ता हूँ कि अच्छे-बुरे का भेद जान सकूँ| इसी पढ़ने में कई अच्छे कवियों की अच्छी "कविताओं" से मुलाक़ात हो जाती है| खूब पढ़ने का प्लस प्वाइंट :-) .... अशोक कुमार पांडेय की "लगभग अनामंत्रित" ऐसी ही एक किताब है-एक अच्छे कवि की अच्छी कविताओं का संकलन|
करीब पचास कविताओं वाली ये किताब कहीं से भी कविताओं के भार से दबी नहीं मालूम पड़ती, उल्टा अपने लय-प्रवाह-शिल्प-बिम्ब के सहज प्रयोग से आश्वस्त सी करती है कि कविता का भविष्य उतना भी अंधकारमय नहीं है जितना कि आए दिन दर्शाया जा रहा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में| विगत तीन-एक सालों से अशोक कुमार पांडेय की कवितायें पढ़ता आ रहा हूँ...नेट पर और तमाम पत्रिकाओं में| स्मृतियों के गलियारे में फिरता हूँ तो जिस कविता ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकृष्ट किया था इस कवि की ओर, वो थी एक सैनिक की मौत| शीर्षक ने ही स्वाभाविक रूप से खींचा था मेरा ध्यान और पढ़ा तो जैसे कि स्तब्ध-सा रहा गया था| यूँ वैचारिक रूप से इस कविता की कुछ बातों से मैं सहमत नहीं था, न ही कोई सच्चा सैनिक होगा...लेकिन पूरी रचना ने अपने समस्त कविताई अवतार में मेरे अन्तर्मन को अजब-गज़ब ढंग से छुआ| किताब में ये कविता चौथे क्रमांक पर शामिल है| किताब में शामिल कुल अड़तालीस कविताओं में कई सारी कवितायें पसंद हैं मुझे और सबका जिक्र करना संभव नहीं, लेकिन कहाँ होगी जगन की अम्मा , चाय अब्दुल और मोबाइल और माँ की डिग्रियाँ जो किताब में क्रमश: तीसरे, छठे और ग्यारहवें क्रमांक पर शामिल हैं, का उल्लेख किए बगैर रहा न जायेगा|
जहाँ "कहाँ होगी जगन की अम्मा" अपने अद्भुत शिल्प और छुपे आवेश में बाजार और मीडिया का सलीके से पोशाक उतारती है और जिसे पढ़कर उदय प्रकाश जी कहते हैं "बहुत ही मार्मिक लेकिन अपने समय के यथार्थ की संभवत: सबसे प्रकट और सबसे भयावह विडंबना को सहज आख्यानात्मक रोचकता के साथ व्यक्त करती एक स्मरणीय कविता" ...वहीं दूसरी ओर "चाय, अब्दुल और मोबाइल" मध्यमवर्गीय (महत्व)आकांक्षाओं पर लिखा गया एक सटीक मर्सिया है| दोनों ही कवितायें बड़ी देर तक गुमसुम कर जाती हैं पढ़ लेने के बाद| "माँ की डिग्रियाँ" तो उफ़्फ़...एक विचित्र-सी सनसनी छोड़ जाती है हर मोड़ पर, हर ठहराव पर| इस कविता का शिल्प भी कुछ हटकर है, जहाँ कवि अपनी माँ के अफसाने को लेकर अपनी प्रेयसी से मुखातिब है| स्त्री-विमर्श नाम से जो कुछ भी चल रहा है साहित्यिक हलके में, उन तमाम "जो कुछों" में अशोक कुमार पाण्डेय की ये कविता शर्तिया रूप से कई नये आयाम लिये अलग-सी खड़ी दिखती है|
"लगभग अनामंत्रित" की कई कवितायें हैं जिक्र के काबिल| एक और कविता "मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ" बिलकुल ही अलग-सी विषय को छूती है| जहाँ तक मेरी जानकारी है तो दावे से कह सकता हूँ कि ये विषय शायद अछूता ही है अब तक कविताओं की दुनिया में| पिता का अपनी बेटी से किया हुआ संवाद...एक पिता जिसे बेटे की कोई चाह नहीं और जिसके पीछे सारा कुनबा पड़ा हुआ है कि वंश का क्या होगा...और कुनबे की तमाम उदासी से परे वो अपनी बेटी से कहता है "विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा ये शजरा/वह तो शुरू होगा मेरे बाद/तुमसे"| इस कविता से मेरा खास लगाव इसलिए भी है कि खुद भुक्तभोगी हूँ और अगर मुझे कविता कहने का सऊर होता तो कुछ ऐसा ही कहता|
अशोक कुमार पाण्डेय के पास अपना डिक्शन है एक खास, जो उन्हें अलग करता है हर सफे, हर वरक पर उभर रहे तथाकथित कवियों के मजमे से| अपने बिम्ब हैं उनके और उन बिंबों में एक सहजता है...जान-बूझ कर ओढ़ी हुई क्लिष्टता या भयावह आवरण नहीं है उनपर, जो हम जैसे कविता के पाठकों को आतंकित करे| उनके कई जुमले हठात चौंका जाते हैं अपनी कल्पनाशीलता से और शब्दों के चुनाव से|
चंद जुमलों की बानगी ....
-बुरे नहीं वे दिन भी/जब दोस्तों की चाय में/दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियाँ (सबसे बुरे दिन)
-अजीब खेल है/कि वजीरों की दोस्ती/प्यादों की लाशों पर पनपती है (एक सैनिक की मौत)
-पहले कविता पाठ में उत्तेजित कवि-सा बतियाता अब्दुल (चाय, अब्दुल और मोबाइल)
-जुलूस में होता हूँ/तो किसी पुराने दोस्त-सा/पीठ पर धौल जमा/निकल जाती है कविता (आजकल)
-उदास कांधों पर जनाजे की तरह ढ़ोते साँसें/ये गुजरात के मुसलमान हैं/या लोकतंत्र के प्रेत (गुजरात 2007)
दो-एक गिनी-चुनी कवितायें ऐसी भी हैं किताब में, जिन्हें संकलित करने से बचा जा सकता था, जो मेरे पाठक मन को थोड़ी कमजोर लगीं....विशेष कर "अंतिम इच्छा" और "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश"| "अंतिम इच्छा" को पढ़ते हुये लगता है जैसे कविता को कहना शुरू किया गया कुछ और सोच लिए और फिर इसे कई दिनों के अंतराल के बाद पूरा किया गया| विचार का तारतम्य टूटता दिखता है...सोच का प्रवाह जैसे बस औपचारिक सा है| वहीं "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश" में ऐसी झलक मिलती है कि कवि को 'अहर्निश' शब्द-भर से लगाव था जिसको लेकर बस एक कविता बुन दी गई|
किताब का कलेवर बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है| महेश वर्मा द्वारा आवरण-चित्र सफेद पृष्ठभूमि में किताब के नाम के साथ खूब फब रहा है| शिल्पायन प्रकाशन की किताबें अच्छी सज्जा और बाइंडिंग में निकलती हैं हमेशा| यूँ व्यक्तिगत रूप से, किताब खरीदने और फिर उसे बड़े जतन से सहेज कर रखने वाला मेरा 'मैं" सफेद आवरण वाली किताबों से तनिक चिढ़ता है कि बार-बार पढ़ने और किताब पलटने के बाद ये हाथों के स्पर्श से मैली पड़ जाती हैं| किताब में चंद प्रूफ की गलतियाँ खटकती हैं....विशेष कर एक कविता "तौलिया, अर्शिया, कानपुर" की पहली पंक्ति ही तौलिया के 'टंगी' होने की वजह से स्वाद बेमजा कर देती है और विगत एक दशक से अनशन पर बैठीं मणीपूर की इरोम शर्मीला का नाम किताब में दो-दो बार गलती से इरमीला शिरोम छपा होना चुभता है आँखों को| उम्मीद है किताब के दूसरे संस्करण में इन्हें सुधार लिया जायेगा| किताब मँगवाने के लिए शिल्पायन के प्रकाशक श्री ललित जी से उनके मोबाइल 9810101036 या दूरभाष 011-22821174 या फिर उनके ई-मेल shilpayanbooks@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है| कविता की एक अच्छी किताब हम कविताशिकों को सौपने के लिए आशोक कुमार पाण्डेय का बहुत-बहुत शुक्रिया और करोड़ों बधाईयाँ...और साथ ही उन्हें समस्त दुआएं कि उनका कविता-कर्म यूँ ही सजग, चौकस और लिप्त रहे सर्वदा...सर्वदा !
...और अंत में चलते-चलते इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कविता| एक प्रेम-कविता... प्रेम की एक बिल्कुल अलग अनूठी सी कविताई प्रस्तुति, प्रेम को और-और शाश्वत...और-और विराट बनाती हुई| सुनिए:-
मत करना विश्वास
मत करना विश्वास/अगर रात के मायावी अंधकार में
उत्तेजना से थरथराते होठों से/किसी जादुई भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम्हारा यूँ ही मैं
मत करना विश्वास/अगर सफलता के श्रेष्ठतम पुरुस्कार को
फूलों की तरह सजाता हुआ तुम्हारे जूड़े में
उत्साह से लड़खड़ाती भाषा में कहूँ
सब तुम्हारा ही तो है
मत करना विश्वास/अगर लौटकर किसी लंबी यात्रा से
बेतहाशा चूमते हुये तुम्हें/एक परिचित-सी भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम ही आती रही स्वप्न में हर रात
हालाँकि सच है यह/ कि विश्वास ही तो था वह तिनका
जिसके सहारे पार किए हमने/दुख और अभावों के अनंत महासागर
लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस कदर?
पलटती रहना यूँ ही कभी-कभार मेरी पासबुक
करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास
हँसो मत/जरूरी है यह
विश्वास करो/तुम्हें खोना नहीं चाहता मैं...
बड़े दिनों बाद आप की कोई पोस्ट नजर आई |
ReplyDeleteबधाई |
धीरे धीरे लिंकों को खंगालता हूँ |
शुक्रिया रविकर जी, व्यस्तता कुछ यूँ बांधे रहती है कि चाह कर भी बराबर अंतराल पर लिख नहीं पाता|
Deleteसबसे बुरे दिन और मत करना विश्वास वाकई बहुत खूबसूरत कवितायेँ हैं.. जब अशोक ने मुझे यह पुस्तक मेल की और 'सबसे बुरे दिन' मैंने पहली बार पढ़ी तो यह संकलन मैंने कोई दो दिन के लिए उठाकर ही रख दिया इस प्रथम कविता से ही दिल दिमाग हिल सा गया, 'मत करना विश्वास' भी लाजबाब है .गज़ब हैं कई कई कवितायें ..इस आलेख के लिए आपका शुक्रिया भाई को हार्दिक बधाई ....
ReplyDeleteसच कहा मैम... "सबसे बुरे दिन" का इफेक्ट मेरे दो-तीन अन्य मित्रों पर भी कुछ ऐसा ही था|
Deleteअलग दृष्टिकोण, अनूठे विचार..
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण भाई
Deleteईमानदार आलोचना .
ReplyDeleteदर असल अच्छी कविता का अभाव इस लिए भी दिखाई दे रहा है कि इधर की आलोचना ईमानदार नही रह गई है .
लेकिन अजेय भाई, कविता...अच्छी कविता,आलोचक को ध्यान में रख कर कही ही क्यों जाये? कविता-कर्म ज्यादा महत्वपूर्ण है या आलोचक के शब्द????
Deleteवाकइ अशोक कुमार पांडेय जी उम्दा लिखते हैं। जो कविता आपने आखिर में डाली है, वह उनके ब्लॉग पर पढ़ चुकी हूं.. बाकी लिंक देखती हूं, शायद कुछ बिना पढ़ा मिल जाए। शुक्रिया गौतम जी..
ReplyDeleteवैसे आप भी बहुत अच्छा लिखते हैं.. बहुत दिनों से आपका कुछ मौलिक नहीं पढ़ा। लिखते रहिए..
ReplyDeleteदूसरों का लिखा पढ़ने को इतना कुछ है, मैम कि अपना लिखने की फुरसत कहाँ :-)
Deleteअशोक जी की कविताओं की नियमित पाठिका हूँ....पर कविता पढ़कर सिर्फ महसूस कर सकती हूँ...गूंगे के गुड़ जैसा...उसका स्वाद बतला नहीं सकती.
ReplyDeleteआपने इतनी अच्छी तरह उन कविताओं से परिचित करवाया है...कि हर किसी के मन में इन्हें पढ़ने की उत्कंठा जाग उठे.
मैने भी अपने ब्लॉग पर इस कविता-संग्रह के विषय में जब लिखा था (मात्र परिचय ) तो यही कविता उद्धृत की थी
"मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ" मेरी भी पसंदीदा कविताओं में से एक है.
http://rashmiravija.blogspot.in/2011/09/blog-post_28.html
मैं धरती को.... एक अनूठी कविता है, मैम| एक रेयर कविता! मैं खुद भी एक बेटी का पिता हूँ और पूरे परिवार, रिश्ते-नातों का जो प्रेशर बन रहा है बेटे के लिए, वो बता नहीं सकता| अशोक भाई की इस कविता का मन करता है पोस्टर बना कर अपने गाँव में जगह-जगह चिपका दूँ|
Deleteपांडे जी से बढ़िया परिचय करवाया आपने ... आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया शिवम भाई... स्नेह बनाये रखें !
Deleteअहा! बहुत सुन्दर.... बहुत ध्यान से पढ़ते हैं आप.... गलतियों पर पैनी नज़र है और कुछ ईमानदार वक्तव्य भी... ये किताब मैंने भी मंगवाई थी.... और तमाम अरबों खरबों तमन्नाओं की तरह इस पर लिखने का मन भी जाता रहा... सो अपनी काहिली को सिर्फ इतना उकसाया कि अशोक जी को फोन कर उनसे बतिया लिया....
ReplyDeleteजगन कि अम्मा और माँ कि डिग्रीयां पूरे किताब में कविताओं का एक्सटेंशन लगा... भावुक कवितायेँ बहुत पढ़ीं... लेकिन ये बहुत अलग तरह से छूती है.... मुझे इस किताब में पहली कविता ही नहीं रूचि जो पाश के शिल्प से प्रेरित है...
मुझे कई बार लगा कि कवि का शिल्प अपना नहीं है ये बस असर इसलिए कर रही है क्योंकि अनछूए विचार, बिम्ब और कहन है... ये इतना आक्रोश भर देती है कि पसंदीदा बन जाती है.
खैर... इन दिनों इस पर काफी चीड फाड़ चल रही है और मैं इतना सब कुछ बस मुंहलगा होने के नाते लिख रहा हूँ.... अशोक जी कि ईमानदारी ही है जो हर बार उभर कर आती है... चाहे उनका लेख हो, कविता हो या कहानी एक यही चीज़ है जो छन जाती है हर बार...
राजनीति के दंगल में इन्होने अपने आप को अभी तक बचाए रखा है... तार्किक बातें भी करते हैं... फेसबुक पर भी अपने स्टेटस में ये एक धुन में दीखते हैं...
किताब का शीर्षक बहुत आकर्षक है और टायटल कविता तो जानदार है... मैं भी हर कुछ दिन पर लगभग आमंत्रित कविता जरूर पढ़ लेता हूँ...
पिछले तीन साल में अपने मजबूत कविता के कारण वो बहुत आगे बढ़ गए हैं... मुझे उनका आक्रामक तेवर बहुत आकर्षित करता है.
इनकी एक लम्बी कविता वनदेवी जैसा कुछ भी अक्सर याद आता है, उन्ही के शब्दों में "भीड़ में धौल जमा जाता है"
ये जो हर समय अपनी तथा-कथित काहिली का रोना रहते हो तुम, सागर....कब तक, आखिर कब तक??? ;;-)
Deleteजानते हो, "लगभग अनामंत्रित" की दो प्रति खरीदनी पड़ी|पहली प्रती एक सीनियर उठा ले गए पढ़ने के लिए और बाद में बाकायदा ऐलान कर के कहा कि पचा लिया|
अशोक भाई की ईमानदारी ही तो उनकी कविताओं को खास बनाती है |
bas isi zidngi bhar :-)
Deleteउम्दा समीक्षा
ReplyDeleteशुक्रिया !
Deleteबहुत शुक्रिया मेजर साहब
ReplyDeleteआपने जिन कविताओं को कमज़ोर कहा है, मजेदार यह कि मैंने खुद उन्हें तथा कुछ अन्य को प्रकाशक से हटाने को कहा था लेकिन कुछ मिसकम्यूनिकेशन हुआ और...:) हाँ "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार" पर कुछ देखने का मन था...प्रूफ की गलतियां कवि को गाली जैसी लगती हैं.. काश कि इस पर वश होता :( अगर कोई दूसरा संस्करण आया तो ज़रूर इनसे मुक्ति मिलेगी...
आप दोस्तों की मुहब्बत के काबिल बना रह सकूं बस यही कोशिश रहेगी/रहती है. एक बार फिर हौसलाअफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया.
"अगर कोई दूसरा संस्करण आया" का क्या मतलब अशोक भाई....आना ही आना है| जिस हिसाब से किताब की बिक्री हुई है, वो हर्ष का विषय है|
Deleteअरण्यरोदन वाले पे जरूर लिखना चाहता था, लेकिन पोस्ट फिर बहुत लंबा हो जा रहा था| कुछ तो है कि मेरे आपके मन की बात मिलती है :-)
कविता जहाँ धड़कती है ...जहाँ से उसे धड़कना चाहिये...वहीं से पुकारा गया है उसे। यह पुकार एक ज़रूरतमन्द की पुकार है इसलिये आवाज़ दूर तक प्रतिध्वनित हो रही है। शास्त्रीय समीक्षाओं की अपेक्षा यह समीक्षा कहीं अधिक मौलिक और इमानदार है।
ReplyDeleteशुक्रिया कौश्लेंद्र जी.... आपका स्नेह बहुत मायने रखता है इस अदने के लिए!
Deletereply वाले से नहीं पहुँच पा रहा तो
ReplyDelete"लेकिन अजेय भाई, कविता...अच्छी कविता,आलोचक को ध्यान में रख कर कही ही क्यों जाये? कविता-कर्म ज्यादा महत्वपूर्ण है या आलोचक के शब्द????"
सच कहा आपने "हाथ मिला न मिला दिल कहीं ज़रूर मिलता है" इस संकलन पर नामवर जी को छोड़ के (वह भी दूरदर्शन पर बस) शायद ही किसी प्रोफेशनल आलोचक ने लिखा हो. लेकिन पन्द्रह से अधिक पाठकों ने किताब खरीद कर पत्रिकाओं से लेकर ब्लाग्स तक में जो लिखा वह मेरे लिए इतना महतवपूर्ण है कि किसी आलोचक को मुफ्त किताब भेज कर दरबार लगाने की कभी इच्छा ही नहीं हुई...
पाण्डेय जी के परिचय के लिए आभार आपका , अच्छी रचना के लिए उनको बधाई !
ReplyDeleteअद्भुद रचना ... पाण्डेय जी की कुछ रचनाएँ मुझे बेहद पसंद हैं
ReplyDeleteसंकलन की अधिकाँश कवितायें आपके अंदर समाने के लिए पूरा समय लेती हैं. सबसे बढ़िया बात यह है की अशोक जी की भाषा अधिकांशतः "आम जन" को समझ आने वाली होती है जो ऐसी कविताओं के लिए तो प्रथम गुण होना चाहिए जिनका उद्देश्य जनसरोकार है| अधिकाँश कवितायें बेमिसाल हैं पर मेरी पसंदीदा है - "लगभग अनामंत्रित"
ReplyDeleteभैय्या बहुत अच्छी समीक्षा..आपकी ग़ज़लों और कहानियों की तरह दिल में उतरती हुई..आज ही शिल्पायन से संपर्क किया जाएगा..
ReplyDeleteगौतम जी
ReplyDeleteनमस्कार.
बहुत शानदार विवेचना की है..... किताब पढनी ही पड़ेगी. कविता न ख़त्म हुयी है न होगी.... उतर चढाव तो आना जाना है... इससे जियादा कुछ नहीं.
( भाई फोन तो उठा लिया करिए)
इतने अनूठे नाम वाली कविता की किताब और आपकी समीक्षा, खरीदना ही पडेगी खासकर आपकी उध्दृत की हुई कविता पढकर ।
ReplyDeleteनमक जितना अविश्वास तो करना ही पडता है ।
स्तब्ध हूँ "मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ" पढ़कर. कितना कुछ कह दिया है और वो भी कितने अल्प शब्दों में. बहुत-२ बधाई इतनी सुन्दर कविता के लिए.
ReplyDeleteवाह.. 'लगभग अनामंत्रित' पर एकदम निर्दोष, निर्लिप्त और निश्शंक टिप्पणी। गौतम जी, कविता की गहराई में उतरने वाला माना अब किसी कवि से कम पातालस्पर्शी नहीं रहा... बहुत शानदार। बधाई, शुभकामनाएं और ऐसी ही अगली किसी स्वत: नि:सृत अनुभूति-अभिव्यक्ति का इंतज़ार..
ReplyDeleteएकदम अलग सा नाम है ऊपर से आपकी समीक्षा चार चाँद लगा रही हैं. अच्छा लगा पांडे जी को जानना और उनकी कुछ कवितायों को पढ़ना
ReplyDeleteगौतम, बहुत बढ़िया पोस्ट है यह तो। एक पुस्तक से जैसे तुमने परिचय करवाया अच्छा लगा। जो कविता तुमने पढ़वाई वह पढ़कर सोच रही हूँ कि वह है तो बहुत सही किन्तु, न, मैं ऐसा अविश्वास न कर पाऊँगी। अविश्वास कर यदि किसी को कसकर पकड़कर रख भी पाऊँगी तो भी क्या? जब मैं स्वयं ही अपनी नजरों में गिर जाऊँगी तो किसी को थामकर रखने का क्या लाभ? न कभी न कर पाऊँगी। बेहतर है कि अपने पर ही विश्वास करूँ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
वाह..
ReplyDeleteजो कवितायें मन पर छाप छोड़ती हैं उनको दोबारा आखों से छूना कितना सुखद होता है...अक्सर नयी किताबें कई वर्षों बाद हाथ लगती हैं लेकिन "लगभग आमंत्रित" ने यह सफ़र कुछः महीनो में तय कर लिया ... गौतमजी, अशोकजी की कविताओं पर जिस शिद्दत से लिखा है अनगिनत आमंत्रण के साथ अनगिनत बार पढ़ने को... किताब फिर से बुकशेल्फ से उठ कर पहुँच जाती है बेड साइड केबिनेट पर....
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