रात के ढाई बजे (रात के? या सुबह के??...) दूर कहीं पटाखों के फूटने की आवाज़ें आती हैं और किसी अनिष्ट की आशंका से नींद खुलती है चौंक कर| हड़बड़ायी-सी नींद को बड़ा समय लगता है फिर आश्वस्त करने में कि ये कश्मीर नहीं है...छुट्टी चल रही है...घर है, जहाँ तू बेफ़िक्र हो सुकून के आगोश में ख़्वाबों से गुफ़्तगू करती रह सकती है| उचटी हुई नींद का अफ़साना, लेकिन, जाने किस धुन पे बजता रहता है रात भर...वक़्त की उलझनों से परे, समय की दुविधाओं से अलग| सुकून का आगोश फिर कहाँ कर पाता है ख़्वाबों से गुफ़्तगू| किसी असहनीय निष्क्रियता का अहसास जैसे उस आगोश में काँटे पिरो जाता हो...उफ़्फ़ ! अधकहे से मिसरे...अधबुने से जुमले रतजगों की तासीर लिखते रहते हैं करवटों के मुखतलिफ़ रंग से बिस्तर की सिलवटों के बावस्ता...कोई तो कह गया था वर्षों पहले फुसफुसा कर "कश्मीर ग्रोज इन्टू योर नर्व्स"....ओ यस ! इट डज !! इट सर्टेनली डज !!!
सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दीये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये
अहा...! सच में?
छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना
कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब...
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?
लेकिन ये जो एक सवाल है, उठता है बार-बार और पूछता है, पूछता ही रहता है कि...बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में? तुम्हें नहीं मालूम कि मुश्किलें कितनी होंगी तब, सबकुछ शुरू से शुरू करने में...फिर से...
...रतजगे की तासीर मुकम्मल नहीं होती और सुबह आ जाती है तकिये पर थपकी देती हुई| नींद को मिलता है वापस सुकून भरा आगोश| सुना है, सुबह में देखे हुये ख़्वाब सच हो जाते हैं...!
सुना है,
छीनना चाहते हो वो हक़ सारे
कभी दीये थे जो तुमने
इस (छद्म) युद्ध को जीतने के लिये
अहा...! सच में?
छीन लो,
छीन ही लो फौरन
कि
सही नहीं जाती अब
झेलम की निरंतर कराहें
कि
देखा नहीं जाता अब और
चीनारों का सहमना
कहो कि जायें अपने घर को
हम भी अब...
खो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?
लेकिन ये जो एक सवाल है, उठता है बार-बार और पूछता है, पूछता ही रहता है कि...बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| फिर से बुलाओगे तो नहीं ना वापस ऐसे में? तुम्हें नहीं मालूम कि मुश्किलें कितनी होंगी तब, सबकुछ शुरू से शुरू करने में...फिर से...
...रतजगे की तासीर मुकम्मल नहीं होती और सुबह आ जाती है तकिये पर थपकी देती हुई| नींद को मिलता है वापस सुकून भरा आगोश| सुना है, सुबह में देखे हुये ख़्वाब सच हो जाते हैं...!
सुन्दर प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें ||
ReplyDeletechitrayepanne.blogspot.com
बाहर की तपिश धीरे धीरे खून में घुलने लगती है। हड़बड़ा कर उठना अन्दर का हिलोर दिखाता है।
ReplyDeleteगौतम
ReplyDeleteपढ़े हुए सच और महसूस किये हुए सच , का सच , इतनी बारीकी से उजागर कर दिया .
अब तो अपने उन फौजी भाइयों के ना रहने का सच इतनी टीस देता हैं जिसको शब्द नहीं दे सकती
वापस आ कर फिर जाना और फिर कभी वापस ना आना नियति लगता हैं नहीं बनाई जा रही हैं
सस्नेह
रचना
Monday ! The same 'Monday' as it use to be. :-)
ReplyDeleteदर्द है, असलियत है। लेकिन फिर भी, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन..."
ReplyDeleteहम भी अब...
ReplyDeleteखो चुके कई साथी
बहुत हुईं कुर्बानियाँ
और...कुर्बानियाँ भी किसलिये
कि
बचा रहे ज़ायका कहवे का ?
बुनीं जाती रहे रेशमी कालीनें ?
बनीं रहे लालिमायें सेबों की ?
या
बरकरार रहे फिरन के अंदर छुपे
कांगड़ियों के धुयें की गरमाहट...?
सच है गौतम तुम्हारे और तुम जैसे सभी जवानों के लिये ये सब कुछ कितना कष्टदायक है इसे हम समझ ही नहीं सकते क्योंकि हम तो तुम सब के कारण सुरक्षित और चैन की नींद सोते हैं ,,
वाक़ई ये इतनी क़ुर्बानियाँ किस लिये ?
मुझे तो बस यही शेर याद आता है कि --
"ग़ैर मुम्किन है कि हालात की गुत्थी सुलझे
अह्ल ए दानिश ने बहुत सोच के उल्झाई है"
दर्द को शब्द मिले
ReplyDeleteशब्द को पंख
उड़ते-उड़ते बैठ गई आ कर
मेरे लैपटॉप पर
मैने हौले से उसे छूना चाहा
फुर्र से उड़ गई
..धुत्त पागल!
कई बार हुआ है ऐसा
उसकी चहचहाटों को सुनकर
खुश हुआ हूँ
और महसूस किया है बाद में
वह चहक नहीं रही थी
प्यासी थी
पानी मांग रही थी।
कश्मीर...
ReplyDeleteपता नहीं कितनी पीढियां सजा पाएंगी...
जय हिंद , मेजर !
ReplyDeleteअब क्या कहे ... सियासत का खेल चल रहा है ... किसी को क्या फर्क पड़ता है ... कश्मीर का जो हो सो हो ... उनका वोट बैंक बना रहे बस !
आपका दर्द समझ में आता है ... पर क्या करें कि हम में से किसी के पास भी इस दर्द की दवा नहीं है ... और जिन के पास दवा है उनको इस दर्द का अहेसास नहीं !
अभी थोडा समय लगेगा चैन से सोने में ... आदत बड़ी कुत्ती चीज़ होती है ... एक बार जैसी पड़ जाए ... फिर बदलने में समय तो लगता ही है !
अपना ख्याल रखना !
अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
ReplyDeleteदिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहाँ तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी
आमीन... !
ReplyDeleteऔर हाँ... मंडे के मंडे... पक्का ? वादा ??
ReplyDeleteकोशिश कम से कम !
pratyek shabd ek alag kahani bayaan kar rahi hai...adbhut
ReplyDeleteएक लम्बे समय के बाद ही सही .....स्वागत है.
ReplyDeleteगौतम जी ! लगता है ढुल-मुल और दोमुही नीतियों से तंग आ चुके हो ....मामला आर-पार का हो जाना चाहिए ...सभी यही चाहते हैं....पर वे नहीं चाहते जिन्हें वास्तव में चाहने के लिए हमने उन्हें अधिकृत किया हुआ है .......शायद भारत की यही नियति है ......और फौजी की भी .......यूँ भी एक नादाँ सा रोग तो पाल ही चुके हो ......निभाना पड़ेगा ....कोई रोग ज़ल्दी पीछा कहाँ छोड़ता है ?
और हाँ ! यह अच्छी कही, वापस आ जाने के बाद दुबारा नहीं जाना पड़ेगा ...इसकी कोई गारंटी नहीं. कश्मीर का ऐसा भाग्य कहाँ ? ऐसा होता तो राजा हरी सिंह की नींद बहुत पहले ही खुल गयी होती ......वे जिस मुगालते में थे ...मुगालते की वही परम्परा आज भी कायम है ...उनकी रियाया में.
बहुत दिन बाद सैनिक ने आँखें नम की....
ReplyDeleteऊहुँ..खुली आँख के सपने सच नही होते....ये भ्रम है..... डर जिसे छोड़ आये हो....
और ईश्वर आपके इस सपने को कभी सच ना करें, जिसमें सुधरी चीजें बिगड़ जायें और बहुत सी बहने सुबह से शाम तक फोन ना आने से वैसे ही घबड़ा जायें जैसे सैनिक घबड़ा गया पटाखों की आवाज़ से। कोई अच्छा विचार आये ही ना, लाख लाने की कोशिश करो फिर भी। सारे दोस्तों, साथियों के फोन घनघना दिये जायें और वो सब बेचारे झूठ बोलते रहें, इण्टरनेट के सारे पेज सर्फ कर डाले जायें और टी०वी० पर समाचार से ज्यादा नीचे छोटे अक्षरों में लिखी छोटी छोटी न्यूज़ पर ज्यादा ध्यान दिया जाये, जो कहीं अपनी बहुत बड़ी न्यूज़ ना हो जाये इस आशंका के साथ........
तुम हज़ार साल जियो....
२ बार पढ़ चुकी हूँ..पर शब्द नहीं मिल रहे कुछ कहने को.
ReplyDeleteबस दुआ है आपका सपना सच हो जाये.बनी रहे कहवे की गर्माहट,सेबों का रंग और फिरन का धुंआ..आमीन.
चकाचक है! :)
ReplyDeleteगौतम कितना नज़दीक से महसूस किया है कश्मीर का जहन तुमने जिसकी यादें सोते जागते भी साथ हैं. बहुत संवेदनशील पोस्ट और एक प्रश्नचिन्ह लगाती जिम्मेदार लोगो के निर्णय लेने की क्षमता पर.
ReplyDeleteएक कवि हृदय सैनिक का घाटी के हालातों पर सुंदर तफ़सरा!!
ReplyDeleteआपका दर्द आपके शब्दों से बह निकला है। आज उन्हें जरूरत नहीं है सेना की, लेकिन कल फिर जरूरत आन पडेगी तब? तब कितना कठिन होगा परिस्थितियों को सम्भालना, ये बाते राजनीतिज्ञ नहीं जानते। बहुत से राज हैं सियासत के।
ReplyDeleteI still think I can not feel even a fraction of what you do... but still...
ReplyDeleteदर्द इन शब्दों संग बह दिल में उतर आया ... जमी पडी आक्रोश और पीड़ा उबल कर बहने लगीं आँखों से...
ReplyDeleteसियासत इतनी गंदी क्यों होती है...???
यह मरना मारना,लुकाछिपी...क्या आम लोगों की पसंद है...???
हम्म ..सुबह के देखे सपने जो किसी को बताओ नही तो सच हो जाते है जो बता दो तो झूठ...
ReplyDelete.बाद में, बहुत बाद में वापस तो नहीं बुला लोगे जब देखोगे कि वो खास ज़ायका कहवे का तो गुम हुआ जा रहा है फिर से...जब पाओगे कि कालीनों के धागे तोड़े जा रहे हैं दोबारा...जब महसूस करोगे कि सेबों की लालिमा तो दिख ही नहीं रही और तार-तार हुये फिरन में छुपे कांगड़ियों का धुआँ तक नहीं रहा शेष| ।
ReplyDeleteयही सवाल हर जवान को और हर सिविलियन को घेरे हैं ।
आपकी जीवट शक्ती को सलाम ।
सैनिकों की मनःस्थिति को बड़ी खूबसूरती से व्यक्त कर गया आपका ये पाडकास्ट !
ReplyDeleteसाडा हक से इन्स पायर्ड हो गए मेजर .....रतजगे की आदत बड़ी जालिम है ...एडिक्शन का खतरा बना रहता है ....कश्मीर अभी तुम्हारी नसों में कई रोज बहेगा ........
ReplyDelete:)
ReplyDeletechaliye...
kam-se-kam post hi aayi....
कई सवालों की तासीर ही ऐसी होती है कि उनके लिए कोई मुकम्मल जवाब नहीं होता.
ReplyDeleteगौतम जी
ReplyDeleteअरसे बाद आयी आपकी इस पोस्ट के मार्फ़त झेलम की कराह सुनने को मिली.....!
साहब जी ..... क्या लिखते हैं आप, दिमाग के सारे तंतु हिला देते हैं..... हम सब कश्मीर के हाल से मुतास्सिर हैं भले ही हममें से बहुत से लोगों ने कश्मीर कभी न देखा हो..... चूँकि हमने तो कश्मीर को और वहां के समग्र जनजीवन को समीप से देखा है,तो यह दर्द और भी महसूस होता है.
सार्थक प्रस्तुति भोगे हुए और जीए हुए सच के साथ....!
dear sir
ReplyDeleteyour posts are as refreshing as ever.
using net after more than 2 years.
the post echoes the same sentiments which i felt after leaving the valley.
i can clearly recognise the picture in blog,the quintessential chinar tree, the bend of river jhelum, and the village on far bank.
i feel coonected to the post an i believe the feeling is mutual.
काश्मीर समस्या ...इतना दर्द समेटे हुआ है आपके इस लेख में ....और कोई नहीं जनता की इस दर्द की कोई सीमा है भी या नहीं ...
ReplyDeleteसोचता हूं जो ये मेजर ब्लॉगर न होता ...तो कैसे ये दर्द ये सोच , ये अहसास ठीक ठीक वैसा का वैसा हम तक पहुंचता ।
ReplyDeleteकीप गोइंग मेज़र , कीप गोइंग ।
बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको
Leaves you speechless and with a sigh.
ReplyDeletekya kaha jaye ye post padh kar.....khamosh rhna hi behtr hai....behtareen.....
ReplyDeleteएक सच्चे सैनिक की मानसिक उथल पुथल...बेहतरीन प्रस्तुति!! अहसासा इसे करीब से. अनेक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteगौतम सा'ब जंग तो चंद रोज़ की होती है, इंसानियत सदियों रोती है. रश्क होता है कभी पंछी, नदिया, पवन के झोकों से...
ReplyDelete