21 December 2017

ख़्वाहिशें सुलगती हैं इश्तहार में लिपटे देख कर हसीं मंज़र

कब तलक पढ़ेंगे हम नींद की कहानी में करवटों के अफ़साने
सिलवटों के किस्सों में सुन सको जो सुनते हो रतजगों के अफ़साने

ख़्वाब भर चली रातें थक के जब निकल जायें सुबह के दरीचों से
अनमने-से दिन लिक्खे दफ्तरों में टेबल पर फाइलों के अफ़साने

आँसुओं ! तुम्हीं सारे दर्द गर बयां करते, फिर ये तुम समझ पाते
क़हक़हों के चिलमन में हैं छुपे हुये कितने हादसों के अफ़साने

चाँदनी परेशां थी, खलबली थी तारों में, रात थी अज़ब कल की
बादलों की इक टोली गुनगुनाये जाती थी बारिशों के अफ़साने

तुम भले हुये तो क्या, हम भी हैं भले तो क्या, क्या भला भलाई का
वो बुरे हुये तब भी, हैं उन्हीं के दम से ही हाकिमों के अफ़साने

ख़्वाहिशें सुलगती हैं इश्तहार में लिपटे देख कर हसीं मंज़र
जेब कसमसाते हैं रोज़-रोज़ सुन-सुन कर हसरतों के अफ़साने

दाद तो मिले सारी शेर को ही ग़ज़लों में, कौन ये मगर समझे
इक रदीफ़ बेचारा, कैसे वो निभाता है काफ़ियों के अफ़साने

[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]


4 comments:

  1. आँसुओं ! तुम्हीं सारे दर्द गर बयां करते, फिर ये तुम समझ पाते
    क़हक़हों के चिलमन में हैं छुपे हुये कितने हादसों के अफ़साने

    गजल तो पूरी की पूरी ही बेहतरीन है पर इस शेर ने तो दामन ही थाम रखा .....
    चश्मेबद्दूर !!!

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २ जनवरी२०१८के ९००वें अंक के विशेषांक के लिए लिंक की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. बहुत सुंदर रचना मन को छूती हुई
    बधाई

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