06 November 2013

बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं...

उन दिनों जब सूरज तुम्हारी गली की जानिब से आया करता था, मेरे कमरे की खिड़की उल्टी दिशा में खुलती थी...हाँ, चंद मिसरे तब भी लिखा करता था मैं एक छोटी-सी कॉपी में...हाँ, उन्हीं दिनों तो जब मोबाइल आने में अभी एक दशक से ज्यादा का वक्त था, लेकिन आईनों पर अपनी हुकूमत हुआ करती थी... 

उन होठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं
इंगलिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं

इस घर की खिड़की है छोटी, उस घर की ऊँची है मुँडेर
पार गली के दोनों लेकिन छुप-छुप नैन लड़ाते हैं 

बिस्तर की सिलवट के किस्से सुनती हैं सूनी रातें
तन्हा तकिये को दरवाजे आहट से भरमाते हैं

चाँद उछल कर आ जाता है कमरे में जब रात गये
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं

सुलगी चाहत, तपती ख्वाहिश, जलते अरमानों की टीस
एक बदन दरिया में मिल कर सब तूफ़ान उठाते हैं

घर-घर में तो आ पहुँचा है मोबाइल बेशक, लेकिन
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं

कितने आवारा मिसरे बिखरे हैं मेरी कॉपी में
शेरों में ढ़लने से लेकिन सब-के-सब कतराते हैं

{त्रैमासिक "युगीन काव्या" के जून 2013 अंक में प्रकाशित}

18 comments:

  1. अहा, बहुत ही सुन्दर..हिन्दी में शरमाना..

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  2. बहुत सुंदर. लाजबाब रचना !

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  3. "उन होठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं
    इंगलिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं"

    क्या बात है ... जियो मेजर साहब !

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  4. वाह ! सुन्दर गज़ल , मज़ा आ गया । खास कर हिन्दी में शरमाना एकदम नई बात है । बधाई ।

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  5. वाह ...पहला और आखिरी शेर , बब्बर शेर है :).

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  6. वाह क्या बात! सुन्दर।

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  7. कितने आवारा मिसरे बिखरे हैं मेरी कॉपी में
    शेरों में ढ़लने से लेकिन सब-के-सब कतराते हैं

    vaah

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  8. बहुत खूब....

    दिन में शीशे चमकाते, शाम बत्तियाँ बुझाते थे
    बिन मोबाइल गली के लड़के इश्क यूँ लड़ाते थे।

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  9. angrezi gana aur hindi mein sharmana !!

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  10. खुबसूरत अंदाज़ ....
    शुभकामनायें!

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  11. हाय वो छज्जों का आईना चमकाना,
    उवका शरमाना
    और तमक कर नीचे को उतर जाना।

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  12. कृपया उनका पढें उवका नही।

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