15 February 2011

तीन ख्वाब, दो फोन-काल्स और एक रुकी हुई घड़ी...

तस्वीरें देखते हुये सोया था तो ख्वाब दस्तक देते रहे नींद में, नींद भर। जलसा-सा कुछ था जैसे। बड़ा-सा आँगन...एक पतली-सी गली। गली खास थी। ख्वाब का सबसे खास हिस्सा उस गली का दिखना था। ख्वाबों का हिसाब रखना यूँ तो आदत में शुमार नहीं, फिर भी ये याद रखना कोई बड़ी बात नहीं थी कि जिंदगी का ये बस तीसरा ही ख्वाब तो था। इतनी फैली-सी, लंबी-सी जिंदगी और ख्वाब बस तीन...? ख्वाब में गली और आँगन के अलावा एक चाँद था और थी एक चमकती-सी धूप। चाँद उस गली होकर तनिक सकुचाते-सहमते हुये आया था धूप के आँगन में। धूप खुद को रोकते-रोकते भी खिलखिला कर हँस उठी थी। जलसा ठिठक गया था पल भर को धूप की खिलखिलाहट पर और चाँद...? चाँद तो खुद ही जलसा बन गया था उस खिलखिलाती धूप को देखकर। धूप ने एक बार फिर से चाँद के दोनों गालों को पकड़ हिला दिया। बहती हवा नज़्म बन कर फैल गयी फ़िजा में और नींद भर चला ख्वाब हड़बड़ाकर जग उठा। बगल में पड़ा हुआ मोबाइल एक अनजाने से नंबर को फ्लैश करता हुआ बजे जा रहा था। मिचमिचायी खुली आँखों के सामने न चाँद था, न ही वो चमकीली धूप। नज़्म बनी हुई हवा जरूर तैर रही थी मोबाइल के रिंग-टोन के साथ। टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी पर नजर पड़ी तो वो तीन बजा रही थी। कौन कर सकता है सुबह के तीन बजे यूँ फोन...और अचानक से याद आया कि घड़ी तो जाने कब से बंद पड़ी हुई है। दूसरे ख्वाब वाली बीती सदी की गर्मी की एक दोपहर से बंद पड़ी थी घड़ी।

मोबाइल पर एक बहुत ही दिलकश-सी अपरिचित आवाज थी। नींद से भरी और ख्वाब से भर्राई आवाज को भरसक सहेजता हुआ...

"हैलो...!"
"हैलो, आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?"
"नहीं, आप कौन बोल रही रही हैं?"
"यूं ही हूँ कोई। नाम क्या कीजियेगा जानकर।"
"........."
"लेम्बरेटा...ठिठकी शाम, आपकी कहानी अभी-अभी पढ़ा है हंस में। आपने ही लिखी है ना?"
"जी, मैंने ही लिखी है"
"आपने अपने पाठकों के साथ अन्याय किया है।"
"???????"
"कहानी अधुरी छोड़कर"
"लेकिन कहानी तो मुकम्मल है।"
"मुझे सच-सच बता दीजिये प्लीज?"
"क्या बताऊँ????"
"आखिर में वो एसएमएस आया कि नहीं?"
"मैम, वो कहानी पूरी तरह काल्पनिक है।"
"बताइये ना प्लीज, वो शाम अब भी ठिठकी हुई है?"
"हा! हा!! मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मानता हूँ कि आपको ये सच जैसा कुछ लगा।"
"सब बड़बोलापन है ये आप लेखकों का।"
"ओह, कम आन मैम! वो सब एक कहानी है बस।"
"ओके बाय...!"
"अरे, अपना नाम तो बता दीजिये!!!"

...फोन कट चुका था। सुबह के सात बजने वाले थे। नींद की खुमारी अब भी आँखों में विराजमान थी। कमरे में तैरती नज़्म अब भी अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी और चाँद विकल हो रहा था धूप के आँगन में वापस जाने को। टेबल पर लुढकी हुई कलाई-घड़ी अब भी तीन ही बजा रही थी मगर। वो दूसरा ख्वाब था। पिछली सदी की वो गर्म-सी दोपहर थी कोई, जब चाँद उतरा था फिर से धूप के आँगन में। आँगन में उतरने से चंद लम्हे पहले ईश्वर से गुज़ारिश की थी उसने वक्त को आज थोड़ी देर रोक लेने के लिये। दोपहर बीत जाने के बाद...धुंधलायी शाम के आने का एलान हो चुकने के बाद धूप ने ही इशारा किया था कि चाँद की घड़ी अब भी दोपहर के तीन ही बजा रही है। ईश्वर के उस मजाक पर चाँद सदियों बाद तक मुस्कुराता रहा। ...और नज़्म अचानक से फिर मचल उठी। मोबाइल पर वही नंबर फिर से फ्लैश कर रहा था।

"हैलोssss...!!!"
"वो शाम अब भी ठिठकी हुई है क्या सच में?"
"मैम, वो बस एक कहानी है...यकीन मानें।"
"आप सिगरेट पीते हैं?"
"हाँ, पीता हूँ।"
"मैं जानती थी। एसएमएस आया कि नहीं बाद में?"
"हद हो गयी ये तो..."
"ओके, बाय!"
"हैलो...हैलो..."

...फोन कट चुका था। नींद अब पूरी तरह उड़ चुकी थी। टेबल पर लुढ़की हुई कलाई-घड़ी बदस्तुर तीन बजाये जा रही थी। नज़्म बनी हुई हवा मगर अब भी टंगी हुई थी कमरे में। और पहला ख्वाब....? वो कहानी फिर कभी!