24 July 2010

उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं

बहुत दिन हो गये थे अपनी कोई ग़ज़ल सुनाये आपलोगों को। ...तो एक ग़ज़ल आपसब की नज्र।  इस बार बारिश को रिझाने की मुहीम में मिस्रा-ए-तरह उछाला गया था "फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं"। जरा देखिये तो मेरा प्रयास कैसा है:-

उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं

धड़क उठा जो ये दिल उनके देखने भर से
कहो तो इसमें भला क्या मेरी ख़ताएँ हैं

खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं

उधर से आये हो, कुछ जिक्र उनका भी तो कहो
सुना है, उनके ही दम से वहाँ फ़िज़ाएँ हैं

सिखाये है वो हमें तौर कुछ मुहब्बत के
शजर के शाख से लिपटी ये जो लताएँ हैं

उन्हीं के नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं

भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्‍र की हवाएँ हैं

कराहती है ज़मीं उजली बारिशों के लिये
फ़लक पे झूम रहीं साँवली घटाएँ हैं

उठी थी हूक कोई, उठ के इक ग़ज़ल जो बनी
जुनूँ है कुछ मेरा तो उनकी कुछ अदाएँ हैं


...और हमेशा की तरह जिक्र कुछ गानों का जिनकी धुन पर इस ग़ज़ल को गुनगुनाया जा सकता है। मो० रफी साब के दो गाने याद आते हैं...एक तो "ये वादियाँ ये फ़िज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें " वाला है...और एक "न तू जमीं के लिये है न आस्मां के लिये" वाला है। एक और याद आ रहा है उन्हीं का गाया और जो मुझे बहुत पसंद भी है..."हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक, खुदा करे कि कयामत हो और तू आये" । अरे हाँ, वो मुकेश साब का गाया "कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है" वाला गीत भी तो इसी धुन पर है।

14 July 2010

फटा पोस्टर निकला राइटर...

किसी भी रचनाकार के लिये अपनी रचना को साकार होते हुये देखने से बड़ा सुख शायद और कोई नहीं होता...और इस बात की प्रत्यक्ष गवाह बनीं मेरी आँखें उस रोज । गोरखपुर से तकरीबन नब्बे किलोमीटर दूर बसे उस छोटे-से शहर सिद्धार्थनगर की पचीस जून वाली वो चौदहवीं का चाँद खिलायी हुई शाम, वो सद्यःस्नाता की खूबसूरती समेटे हुये भव्य प्रेक्षागृह, एक जीवट निर्देशक व उसके समर्पित बंधुगण, चंद उत्साहित नौनिहालों का मँजे हुये कलाकारों को भी मात कर देने वाला प्रदर्शन और खचाखच-जैसा कुछ विशेषण लिये हुए दर्शकों की तालियाँ एक रचनाकार के इसी असीम सुख को निहारती मेरी आँखों का मिल-जुल कर साथ दे रहे थें।

...तो मेरी इस कहानी की शुरूआत भी होती है उसी पारंपरिक "एक था राजा और एक थी रानी..." की तर्ज पर। एक था
कुश और एक था विजित।...था ? ओहो, मेरा मतलब है... "है"। तकरीबन दो साल पहले ’कुश की कलम’ से मुलाकात तो हो चुकी थी और इन दो सालों में कुश से मिलने की बेताबी अपने चरम पर थी। मुलाकात तय थी यूँ तो उसी की बारात में शामिल होने पर अभी निकट भविष्य में, जहाँ डा० अनुराग ने बीन बजाना था और मुझे नागिन-डांस करना था...किंतु नियति ने हमारी दुलारी बहन कंचन के हाथों विवश होकर उस निकट भविष्य को एकदम से इस वर्तमान में परिवर्तित कर दिया। विवश नियति का ही खेल था कि स्वयमेव ही मेरा अवकाश भी इसी दौरान तय हो गया। मेरे गृह-शहर सहरसा से गोरखपुर तक ले जाने वाली ट्रेन नियत समय पर पहुँचती तो मैं अर्धरात्रि में गोरखपुर स्टेशन पर होता। ट्रेन में ही अनूप शुक्ल जी{अरे, वही अपने फुरसतिया} के फोन ने प्रसन्न होने की एक और वजह दे दी इस उद्‍घोषणा के साथ कि कुश ने उनका अपहरण कर लिया है और उसे सिद्धार्थनगर ले जा रहा है। ट्रेन हमारी समय से चल रही थी अभी तक तो हमने भी प्रसन्न मुद्रा में फुरसतिया को आश्वस्त कर दिया कि वो घबड़ायें नहीं, मैं उनसे पहले पहुंच जाऊँगा और कुश की अब खैर नहीं। किंतु हमारी ट्रेन ने भारतीय रेल-परंपरा का पूरी तरह निर्वाह करते हुये हमें विलंब से पहुँचाया गोरखपुर। वैसे बाद में पता चला कि ये सब कंचन की मिली-भगत थी नियति के साथ कि गोरखपुर से सिद्धार्थनगर की कष्ट-साध्य यात्रा को सहज बनाने के लिये हमारी ट्रेन को इलाहाबाद से आनेवाले वीनस की ट्रेन के आगमन के साथ मिलाया गया था। भेद तो फिर ढ़ेर सारे खुले कि इस षड़यंत्र में कई और लोग शामिल थे...जैसे कि गोरखपुर से सिद्धार्थनगर ले जाने वाली बस का वो मुआ कंडक्टर जिसने नियत-स्थल से हमें जानबूझ कर दो किलोमिटर दूर उतारा और फिर जहाँ से हम और वीनस ने पद-यात्रा की एक दूसरी बस पकड़ने के लिये, वरूण-देव भी शामिल थे कंचन के इसी षड़यंत्र में कि दो किलोमीटर की इस पद-यात्रा में उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। वीनस को लाख कहने पर भी जाने क्यों उस बदमाश ने हमारी एक भी तस्वीर नहीं खिंची उस पद-यात्रा की...जल रहा था कमबख्त कि ब्लौग के लिये मेरा पोस्ट-मैटेरियल उसके पोस्ट-मैटेरियल से "रिच" हो जायेगा।

खैर-खैर मनाते हुए हम पहुँचे कंचन की दीदी के घर जो अभी अगले दो दिनों तक हमसब की शरण-स्थली बनने वाला था। अपने चहेते कार्टूनिस्ट
काजल कुमार जी का एक सटीक और सामयिक कार्टून द्रष्टव्य हो इस संदर्भ में जो मेरे आगे के विवरण को संक्षिप्त रखने में सहायक बनता है। उधर कंचन के षड़यंत्र में बिजली और पानी तक शामिल थे। बरामदे पर खड़ा गंदे-से टी-शर्ट में गंदा-सा वो लड़का जो खड़ा है, कुश ही है वो ना...? देख रहा था मुझे वो मुस्कुराता हुआ कि मैं पहचान पाता हूँ कि नहीं। "hmmm...tha guy has got the LOOKS" सोचते हुये मैंने उसे गले लगाया। ...और फिर क्षणांश में गले में तौलिया लटकाये बहराये अनूप जी बिल्कुल ही अपने फुरसतिया अवतार में और जब उन्होंने हमें गले लगाया तो उनका विशाल आलिंगन मानो हमें किसी बड़े-से थैले में समेट रहा था। अपने विशाल पोस्टों की तरह अनूप जी खुद भी एक विशाल व्यक्तित्व के शहंशाह हैं। उसके बाद की दोपहर का कुल-जमा विवरण यहाँ देखा जा सकता है...वो दोपहरी अद्‍भुत थी- कंचन और उसके परिवार का शब्दों के सामर्थ्य से परे वाला अपनापन लिये दोपहर, दीदी के हाथों का लज़ीज भोजन वाली दोपहर, भाभी का वो स्नेह भरा आतिथ्य संजोये दोपहर, भैया-जीजाजी के अद्‍भुत शेरों का खजाने समेटे दोपहर, अनूप जी के विख्यात असंख्य ’वन-लाइनर’ से सराबोर दोपहर, कुश के कलम जैसी कुश की बातें और उसके शैतान कैमरे पर खिसयाती दोपहर , वीनस को राहत इंदौरी का नकल उतारते देखती दोपहर, कंचन की नान-स्टाप चटर-पटर पे सिर खुझाती दोपहर और थोड़ा-बहुत मुझे झेलती दोपहर...सचमुच अद्‍भुत थी।

फिर संध्या काले जब चाँद अपनी पूरी गोलाई से तनिक अछूता-सा खिला था, एक टुकड़ा भारत साक्षी बनता है संस्कृति-

साहित्य को जीवंत रखने की एक छोटी मगर अलौकिक कोशिश का।
नवोन्मेष...हाँ, यही नाम दिया गया था इस कोशिश को तकरीबन तीन-चार महीने पहले। नाम-करण संस्कार मे मैं भी शामिल हुआ था सुदूर कश्मीर से मोबाइल फोन पर अपनी उपस्थिति जताते हुये। विजित और उसके दोस्तों की एक छोटी-सी टीम ने सिद्धार्थनगर जैसे नामालूम-सी जगह में वो कर दिखाया जो स्वप्न-समान ही था। जहाँ तक अभिनय और मंचीय-प्रदर्शन का सवाल है तो निर्देशन से लेकर अभिनय तक, ये पूरी-की-पूरी टीम नौनिहालों की ही थी...किंतु नाटक की समाप्ति के पश्चात ये ’नौनिहाल’ शब्द ’दिग्गज’ में बदले जाने की माँग कर रहा था। विशेष कर डायरेक्टर और स्क्रीप्ट-राइटर की जोड़ी तो किसी लिहाज से दिग्गज-द्वय से कम नहीं थे। कुश के कलम की विविधता ने मुझे मेरे ब्लौग के शुरूआती दिनों से ही उसका जबरदस्त प्रशंसक बना दिया था और उस पचीस जून की शाम को उसके चुस्त स्क्रीप्ट ने मेरे प्रशंसक ’मैं’ को चमत्कृत कर के रख दिया। अपने स्क्रीप्ट को साकार होते हुये देखते कुश के चेहरे की संतुष्टि और उसकी किलक पर मेरे मुख से अनायास निकला... फटा पोस्टर निकला राइटर...ye! ye!!

रात गये जब हम घर पहुँचे वापस तो ठहरी हुयी हवा और उमस भरी रात ने सब को देर तक जगाये रखा और जगरने में कई कोशिशे हुईं अनूप जी और कुश को अगले दिन भी रोके जाने की ताकि हम उन्हें कवि-सम्मेलन के दौरान अपनी रचनायें झिलवा सकें और लगे हाथों उनके ब्लौग पर एक-दो पोस्ट भी ठिलवा सकें। लेकिन जब दोनों नहीं माने तो फिर तय हुआ कि मुझे सुबह निकलना ही था गुरूजी और उनकी टीम को लाने तो मेरे साथ ही कुश और अनूप जी निकल पड़ेंगे। यूँ तड़के सुबह दोनों को नींद में डूबे देख मैंने तो निर्णय ले लिया था कि दोनों को सोता छोड़कर निकल पड़ूं, लेकिन मेरे इस इकलौते षड़यंत्र में कंचन शामिल न हुईं और उसने बड़ी बेदर्दी से दोनों को जगा दिया। अब कंचन के इस बेदर्द रवैये में कितना अनूप जी के एपेटाइट का योगदान था और कितना दीदी के राशन-बचत की मुहीम शामिल थी, इस सवाल का जवाब उससे ही तलब किया जाये तो बेहतर होगा।

छब्बीस जून की तड़के सुबह सिद्धार्थनगर से बस्ती स्टेशन तक की वो डेढ़ घंटे की यात्रा एक अनूठे ब्लौगर-विमर्श का पर्याय बनी। शायद ही किसी ब्लौगर को छोड़ा होगा हम तीनों ने। अब उस दिन यानि कि छब्बीस जून को सुबह तकरीबन पाँच बजे से साढ़े छः बजे के बीच जिन ब्लौगर भाइयों को जोर की हिचकियाँ आ रही हों, समझ ले कि वो उस विमर्श में शामिल थें।

कुश और अनूप जी को विदा देने के पश्चात हमें सानिध्य मिला अपने
गुरूदेव का। आह...वो सानिध्य तो वर्णनातीत है, कोशिश करूँगा किंतु फिर भी निकट भविष्य में। फिलहाल विदा...

05 July 2010

वो एक मायावी कुमार विश्वास और वो एक अविस्मरणीय संध्या...

बात सन् 2007 के मार्च महीने की है। शनिवार का दिन...नहीं, दिन नहीं संध्या। माह का तीसरा शनिवार। शाम के आठ बजने वाले थे। अब ये सब बातें, ये दिन, ये समय इतने यकीनी तौर पर मैं इसलिये कह रहा हूँ कि सेना में सबकुछ, सारे कार्यक्रम तयशुदा दिनों में साल-दर-साल चलते रहते हैं। जिस दिन-विशेष का जिक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ, उन दिनों मैं देहरादून में अवस्थित भारतीय सैन्य अकादमी में प्रशिक्षक के तौर पर नियुक्त था। प्रशिक्षु कैडेटों का एक पाँच दिनों वाला कठिन ट्रेनिंग-कैम्प संपन्न हुआ था और कैम्प के सफल समापन पर कैडेटों द्वारा धधकती-सुलगती लकड़ियों के इर्द-गिर्द गाना-बजाना हो रहा था। हम कुछेक प्रशिक्षक भी उन्हीं जलती लकड़ियों के समक्ष बैठे उन कैडेटों की हैरतंगेज अन्य प्रतिभाओं से रूबरू हो रहे थे। अब ये जो सेना के तयशुदा कार्यक्रम की बात बता रहा था मैं तो देखिये कि बारह वर्ष पहले जब मैं खुद एक कैडेट था इसी भारतीय सैन्य अकादमी का, तो हमारा भी ये कैम्प मार्च महीने के तीसरे हफ़्ते में हुआ था और ऐसी एक शनिवार थी वो बारह वर्ष पहले की जब मैं कैडेट के तौर पर कैम्प फायर में मस्ती कर रहा था। खैर विषय से न भटकते हुये, एक के बाद एक कैडेट आते जा रहे थे और गीत, डांस, लतीफ़ों के कुछ अचंभित करते प्रदर्शन हमारी आखों के समक्ष प्रस्तुत करते जा रहे थे ...और तब एक पतला-दुबला-सा चश्मा पहने हुये एक कैडेट उठा और उसने हौले से चार पंक्तियाँ गुनगुनायी। उफ़्फ़्फ़्फ़...! एक तो उस कैडेट की आवाज इतनी सम्मोहित करने वाली थी और दूजे उन चार पंक्तियों में कुछ ऐसा था कि रोम-रोम को अपने मैंने सिहरता महसूस किया। वो पंक्तियाँ कुछ यूं थी:-

भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
मैं किस्से को हक़ीकत में बदल बैठा तो हंगामा


पंक्तियों का जादू कुछ ऐसा था कि मुझे उस कैडेट को हुक्म देना पड़ा दुबारा पढ़ने के लिये और फिर कैम्प-फायर के पश्चात भोजन के दौरान करीब साढ़े तीन सौ कैडेटों की भीड़ में पहले तो उसे ढ़ूंढ़ निकाला और फिर देर तक बतियाता रहा उससे और उस दिन मेरा पहली बार परिचय हुआ डा० कुमार विश्वास के नाम के साथ। उस कैडेट के साथ का वार्तालाप अब भी याद है मुझे...

मैं- you sing very well
वो- thank you sir
मैं- those lines that you sang...you have written them?
वो- oh, come on sir! i wish i could have...there is one kumar vishwas
मैं- where can i get the comlete ghazal from?
वो- you go on google sir, kumar vishwas is there everywhere on internet...he is amazing sir...just amazing...i heard him singing in one of the IIT fests...

...और वो अगले दो-तीन मिनट तक कुमार साब का स्तुति-गान करता रहा। उन दिनों मेरा इंटरनेट से वास्ता हफ़्ते में एक-दो बार मेल चेक कर लेने भर से था। एक वो दिन था और तब से लेकर कुमार विश्वास साब के जाने कितने परफार्मेंस के वीडियो देख चुका हूँ मैं। जितना देखता जाता, उतना दीवाना होता जाता। सोचता था कि कभी इस शख्सियत के साथ मंच पर बैठ पाऊँगा...और जब भी मैं अपनी ये दिली तमन्ना साझा करता, मेरी उत्तमार्ध "dont even think about it, that guy...that kumar vishwas is a show-stealer" का फ़िकरा कस कर मुझे हतोत्साहित कर देती ... और सचमुच शो-स्टीलर ही तो हैं कुमार साब। हिंदी का एक कवि जो वाकई किसी सेलेब्रीटी-स्टेटस का आनंद उठाता है तो हमें अपनी हिंदी पर इतराने का मन करता है।

फिर आयी ये संध्या, जिसके बारे में आपसब पहले ही
यहाँ, यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं और यहाँ अभी किश्त-दर-किश्त पढ़ने वाले हैं। उस कवि-सम्मेलन के दौरान उनके साथ मंच साझा करने का सौभाग्य, अपना प्रथम ग़ज़ल-पाठन, उनका मेरे एक-दो अदने से शेर को बाहुक्म दुबारा-तिबारा पढ़वाना और फिर शायद अभी तक का मुझे मिला सबसे बड़ा कम्प्लीमेंट, जब उन्होंने मुझसे कहा कि "तुम झूठ बोल रहे थे मेजर कि मंच पर पहली बार पढ़ रहे हो, इतना बेहतर कोई पहली बार पढ़ता है क्या"....हायsssss, हम तो वहीं निहाल हो गये।

...और जब वो उठे अपनी कवितायें पढ़ने तो जैसी कि परिपाटी-सी बन चुकी है हर उस कवि-सम्मेलन की जिसमें कुमार साब शिरकत करते हैं और जैसा कि मेरी उत्तमार्ध उन्हें संज्ञा देती हैं शो-स्टीलर का...वही सब कुछ हुआ जो होता आ रहा है हर ऐसे कवि-सम्मेलन में...वो कोई दीवाना, पागल जब उठा तो फिर वो था या थी दर्शकों-श्रोताओं की तालियाँ और वाह-वाही। मंच के अदब-कायदे से अनजान मैं, वरिष्ठ जनों की इजाजत ले मंच को तज कर आ बैठा दर्शक-दीर्घा की पहली कतार वाली कुर्सियों में जिसे अभी-अभी मिडियावालों ने कुमार साब से नाराजगी जाहिर करते हुये खाली किया था{वो एक अलग ही एपिसोड था, जिसकी चर्चा फिर कभी}। हलांकि कुमार साब ने सिर्फ और सिर्फ नयी कवितायें और नये मुक्तक पढ़ने की घोषणा की थी, लेकिन मैंने भी दर्शक-दीर्घा से जिद कर-कर के उनसे अपनी पसंदीदा वो "भ्रमर कोई कुमुदिनी पर" वाला मुक्तक पढ़वा ही लिया। दर-असल ये मुक्तक प्रेम में बौराये और विरोध झेले हुये हर युवामन का संताप समेटे हुये है। तीन साल पहले जब मैंने पहली बार उस कैडेट से ये पंक्तियाँ सुनी थी तो बड़ा अफसोस हुआ था कि ये और दो साल पहले क्यों नहीं सुना मैंने कि मेरे प्रेम-विवाह की घोषणा से नाराज माँ-पापा को सुना पाता तब ये मुक्तक तो शायद उन्हें मनाना तनिक और आसान हो जाता :-)।

किंतु इन सबसे परे, कुमार साब के व्यक्तित्व का दूसरा पहलु जो सामने आया वो था कवि-सम्मेलन के उपरांत उनके संग बैठ कर बिताये गये वो अद्‍भुत तीन-साढ़े तीन घंटे। उनकी विलक्षण प्रतिभा, समसामयिक घटनाओं पर उनकी बेजोड़ पकड़, गज़ब की प्रत्युत्पन्नमति, एक-से-एक ताजा लतीफ़े और एक ईर्ष्या से जल-भुन जाने लायक स्मृति-भंडार...उफ़्फ़्फ़, विश्वास कीजिये ऐसे डेडली काकटेल का आस्वादन इससे पहले कभी नहीं किया। उनका स्मरण-कोश हैरान करता है। हिंदी के रीतिकालिन कवियों से लेकर ऊर्दु के लगभग हर उन शायरों को जिन्हें आपने पढ़ा है, वो उनकी रचनायें, उनके शेर बकायदा संदर्भ सहित सुना सकते हैं। जान एलिया के एक शेर को उनके सुनाने के अंदाज याद कर-कर के अब तलक लोट-पोट हुआ जा रहा हूँ मैं। जिस अदा से उन्होंने सुनाया कि "यारो कुछ तो बात बताओ उनकी कयामत बाँहों की / वो जो सिमटते होंगे इनमें वो तो मर जाते होंगे"...अभी भी ठठा कर हँस पड़ा हूँ मैं इसे लिखते -लिखते। समसामयिक घटनाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ और तत्काल उसे जोड़ कर एक कोई जुमला बुन लेना, किसी तिलिस्म से कम नहीं थी उनकी अदा। हमने पूछा भी कि कितने जीबी का हार्ड-डिस्क भरवा रखा है उन्होंने अपने मस्तिष्क में...?



शायद पोस्ट बहुत लंबा खिंच जाये जो मैं लिखता रहूँ उस संध्या-विशेष के बारे में और उस मायावी के बारे, जिसे लोग कुमार विश्वास के नाम से जानते हैं। शुक्रगुजार हूँ अपनी नियति का कि उस संध्या का एक तुच्छ-सा हिस्सा मैं भी था। मुझे मालूम है कि कुमार साब को नापसंद करने वाले भी खूब सारे लोग हैं। यहाँ इंटरनेट पर भी मेरे कुछ मित्र नाक-भौं सिकोड़ते हैं उनके नाम पे। लेकिन कमबख्त सुनते सब-के-सब हैं उनको। उनको नापसंद करने वालों को भी कम-से-कम अपनी हिंदी और विशेष कर हिंदी-कविता के लिये तो कुमार साब का शुक्रगुजार होना ही चाहिये कि एक जटिल और क्लिष्ट समझी जाने वाली चीज को कुमार साब ने सामान्य बना कर आमलोगों तक पहुँचाया...इतना सामान्य कि आई.आई.टी. के टेक्निकल ग्रेजुयेट से लेकर इंडियन आर्मी के सोल्जर‍स तक अब कविता गुनगुनाते हैं।

फिलहाल इतना ही...सिद्धार्थनगर-संस्मरण जारी रहेगा आगे आने वाली प्रविष्टियों में। ...तब तक इस तस्वीर का अवलोकन कीजिये कि एक गुरू कितने स्नेह से निहार रहा है अपने शागिर्द को उसके मेडेन-परफार्मेंस के दौरान:-



...तो अभी विदा अगली प्रविष्टि तक के लिये।